Breaking News

हर प्रश्न का जवाब : वे है विवेकानंद

किसी भी ऐतिहासिक जीवन चरित्र के दो मुख्य साहित्यिक स्रोत होते हैं, एक जीवनी जिसमें व्यक्ति के निजी जीवन , क्या किया, कैसे किया और क्यों किया सम्मिलित रहता है और दूसरा उनका दर्शन सहित्य जो उनके स्वयं के लिखे हुए या बोले हुए शब्द होते हैं जिससे व्यक्ति के विचार क्या थे ,किस-किस सम्बन्ध में थे यह जानकारी मिलती है।  19वीं शताब्दी में जन्में भारत के महान योगी स्वामी विवेकानंद आधुनिक इतिहास के उन न्यून व्यक्तियों में से हैं जिनकी वाणी और कर्म में एक समावेश है। उन्होंने जो बोला और जैसा जीवन यापन किया उसमें कोई  भिन्नता या अंतर न था। “मनसा, वाचा, कर्मणा ” अर्थात हमारे मन के विचार, हम जो बोलते हैं और कर्म या कार्य करते हैं उनमें समानता और संयोग होना। स्वामी विवेकानंद के जीवन में यह संयोग दिखता है। उनके शब्द जितने निर्भीक और साहसी हैं उतना ही निर्भीक और साहसी उनका जीवन था। उनका स्वयं का जीवन भी भयमुक्त यानि अभय था और उनकी वाणी भी मनुष्य को अभय बनने के लिए आग्रह और प्रेरित करती है। वह तो भय को मृत्यु मानते थे और साहस को जीवन। सुभाष चंद्र बोस जो 15 वर्ष की उम्र से लेकर जीवन के अंतिम समय तक स्वामीजी से प्रेरणा लेते हैं और जिनका जीवन स्वयं निर्भीकता से भरा था वह स्वामी विवेकानंद के बारे में अपनी पुस्तक ‘द इंडियन  स्ट्रगल’ (1920-34) पृष्ट  – 18 में लिखते हैं कि, “उन्होंने भारत की नवसन्तति में अपने अतीत के प्रति गर्व, भविष्य के प्रति विश्वास और स्वयं में आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान की भावना फूँकने का प्रयत्न किया । यद्यपि स्वामी विवेकानन्द ने कोई राजनीतिक विचार या सन्देश नहीं दिया, तथापि हर व्यक्ति जो उनके सम्पर्क में आया या जिसने भी उनके लेखों को पढ़ा, वह देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत हो गया और स्वतः ही उसमें राजनीतिक चेतना पैदा हो गई ।”

स्वामी विवेकानंद के जीवन के हर पहलु में एक निरंतरता दिखती है। यह निरंतरता थी भारत या कहें भारत की विचार के लिए जीने की, भारत के आध्यात्मिक पुनर्जागरण के कार्य करने की, भारत के प्रति अपने स्नेह और भारतीयों में आत्मविश्वास जगाने के लिए जिसके लिए उन्हें पश्चिम तक जाना पड़ा, यह निरंतरता थी अपनी सनातन संस्कृति के प्रति गर्व करने की, यह निरंतरता थी एक विचार से औत प्रोत होकर जीवन भर कार्य करने की। यह निरंतरता ही थी जो स्वामी जी को शायद सबसे अलग ही नहीं बनाती बल्कि युवाओं को उन तक खींच लाती है। हर युवा अनेकों चुनौतियों से जूझता है जिसमें सबसे मुख्य है एक विचार या कार्य के प्रति एकाग्रता का आभाव और निरंतर भटकाव आना। यदि वह स्वामी जी की जीवनी या उनका अन्य साहित्य पढ़ते हैं तो उनको एक निरंतरता दिखती है जिसकी वो खोज में है । उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर मिलने लगता है और यही कारण है जिससे स्वामी जी की प्रसंगिकता वर्ष दर वर्ष बढ़ती ही जा रही है।  ऐसा नहीं है की स्वामी जी के जीवन में कोई चुनौतियां नहीं आई या वातावरण हमेशा अनुकूल रहा, बल्कि 25 वर्ष की उम्र के बाद जब से वह परिव्राजक संन्यासी बने तब से उनके जीवन के अंतिम वर्ष 39 साल यानि 14 वर्षों तक तो उनको यह भी नहीं पता था की उनको अगले दिन भोजन कहाँ से मिलेगा और वह विश्राम कहाँ करेंगे। चाहे वह 1884 में अपने पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु के बाद घर पर आया हुआ आर्थिक संकट हो या अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की समाधी ( 1886  ) के बाद उनके शिष्य और अपने गुरु भाइयों को एकत्रित करके शिक्षा और दीक्षा का कार्य हो या गुरु के विचारों को जन – जन तक पहुंचाने का काम हो या फिर परिव्राजक जीवन में बिना साधन-सुविधा भारत को जानने की लालसा हो या फिर जल-वायु परिवर्तन से जूझना हो या फिर दिनों-दिनों तक भोजन ना मिलना हो या फिर अमेरिका में ठण्ड और भूख के कारण उनका संघर्ष हो या रंग भेद का सामना करना हो या फिर अमेरिका के शिकागो शहर में 11 सितम्बर , 1893 को आयोजित विश्व धर्म महासभा का विश्व दिग्विजय हो जिसने उनकी ख्याति को उस स्तर तक पहुंचा दिया था जिसका मूल्यांकन करना कठिन है या उनका उसके बाद 1897 के शुरुआत तक का पश्चिम का प्रवास जहाँ उन्होंने व्याख्यान भी दिए और भारतीय दर्शन पर कक्षाएँ भी ली या 15 जनवरी 1897 को भारत वापस आकर यहाँ अपने व्याख्यानों के द्वारा या 1 मई 1897 को रामकृष्ण मठ की स्थापना के बाद एक संगठन के रूप में किया हुआ कार्य, उनमें एक निरंतरता थी जो उनको सबसे अलग बनाती है । स्वामी जी स्पष्ट थे की अकेले साधन से साधना नहीं होती इसीलिए वह अडिग, अटल, अचल खड़े रहे हर चुनौती के सामने और अपने मनुष्य निर्माण , लोगो में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना जगाने  के कार्य में लगे रहे।  पंडित जवाहरलाल नेहरू भी स्वामी जी के जीवन को देख कर अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ पेज 337  में लिखते हैं कि, स्वामी विवेकानंद ” एक गतिशील और जोशीली ऊर्जा और भारत को आगे बढ़ाने के जुनून से भरपूर थे। वह उदास और निराश हिंदू मन के लिए एक टॉनिक के रूप में आए ।”  उनके लिए भारत को राजनैतिक ही नहीं बल्कि मानसिक तौर पर भी आज़ाद करवाना जरुरी था जिसके लिए उन्होंने भारत के हर भाग में जाकर युवाओं को प्रेरित किया। अपने 1897 को मद्रास में दिए हुए व्याख्यान ” भारत के भविष्य ” में वह हर प्रकार की गुलामी त्यागने के लिए आह्वान करते हैं।  स्वामी जी कहते हैं कि,“आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए।…अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है।” उनसे प्रेरणा लेते हुए आज तक करोड़ों लोग अपना जीवन भारत के लिए और भारत के विचार के साथ जीते हैं।  

लेखक: निखिल यादव- (विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकर्ता है। यह उनके निजी विचार हैं)

Email- insidenikhil@gmail.com

Campus Chronicle

YUVA’s debut magazine Campus Chronicle is a first of its kind, and holds the uniqueness of being an entirely student-run monthly magazine.

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.