~ सारांश वशिष्ठ
हमारे राष्ट्र भारतवर्ष की संघर्ष यात्रा में लाखों-करोड़ों सुने-अनसुने क्रांतिकारियों का बलिदान लगा है। उसी का परिणाम है की हम सभी स्वतंत्र देश में साँस ले पा रहे हैं। स्वतन्त्रता दिवस के मौके पर खुशियाँ मनाने के साथ ही उन सभी जाने-अनजाने क्रांतिकारियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है। स्वतंत्रता संग्राम के बड़े नेताओं को तो पूरा देश जानता है परंतु जो क्षेत्र विशेष में स्वतंत्रता का अभियान चला कर शहीद हो गए, ऐसे स्वयंसेवकों को देश के सामने लाकर उनका सम्मान करना भी बेहद ज़रूरी है।इसी क्रम में बात होगी उत्तर प्रदेश के जिले बदायूं के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की। जिनमें प्रमुख थे-मुंशी मंगलसेन, मास्टर जंग बहादुर जौहरी, कुंवर रुकुम सिंह, चौधरी तुलसीराम, पंडित निरंजन लाल, चौधरी बदन सिंह आदि।
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स्वतंत्रता आंदोलन कुचलने के लिए कलेक्टर विलियम एडवर्ड्स ने एटा, मुरादाबाद, शाहजहांपुर और बरेली जिलों से मदद मांगी। इस दौरान विद्रोह की आग पूरे जिले में फैल चुकी थी। 1 जून 1857 को बरेली की ब्रिगेड ने विद्रोह कर दिया। इसी दिन खजाने के पहरेदारों ने विद्रोह कर खजाना लूट लिया और जेल तोड़कर 300 बंदियों को रिहा कर दिया। स्वतंत्रता आंदोलन की धधकती आग पर आखिर अंग्रेजों ने अप्रैल 1858 में काबू पा लिया। आंदोलन को कुचल दिया गया। दर्जनों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को फांसी दे दी गई और हजारों को जेलों में ठूंस दिया गया।
1857 में उठी क्रांति की ज्वाला शांत जरूर हो गई थी लेकिन यह पूरी तरह से बुझी नहीं थी। 1 मार्च 1921 को महात्मा गांधी के बदायूं आगमन ने एक बार फिर से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में स्फूर्ति भर दी। 1921 में ही गांधी जी के असहयोग आंदोलन में बदायूं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1929 में महात्मा गांधी फिर से बदायूं आए।
26 जनवरी 1930 का दिन बदायूं के इतिहास में पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में दर्ज है। इस दिन एक सभा में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रघुवीर सहाय ने पूर्ण स्वराज पर एक घोषणा पत्र पढ़कर सुनाया। जून 1932 में अंग्रेजों ने दमनकारी नीति अपनाते हुए सैकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को जेलों में ठूंस दिया। 1933 तक ये स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फतेहगढ़ जेल में रहे। इस दौरान जिले में स्वतंत्रता आंदोलन कुछ कमजोर हुआ। 1941 में सत्याग्रह आंदोलन शुरू हुआ तो जिले में क्रांति की ज्वाला फिर धधक उठी। 1942 में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन’ ने क्रांतिकारियों में नई स्फूर्ति का संचार किया।
वहीं हम क्रांतिकारी कुंवर रुकुम सिंह की बात करें तो वे शहर से सटे गांव नगला शर्की के प्रमुख जमींदार केहरी सिंह के पुत्र थे। 1920-21 के असहयोग आंदोलन के लिए उन्होंने आनरेरी मुंसिफ का पद छोड़ दिया। 1921 में अंग्रेजों ने उनको जेल भेज दिया। 1930 में नमक आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इसके बाद उनको फिर जेल जाना पड़ा। कुछ समय के लिए वह देवासराज चले गए वहां उन्होंने महाराज के सलाहाकार के रूप में काम किया। 1939 में अंग्रेज कलेक्टर के आदेश के विरोध में कुंवर रुकुम सिंह के नेतृत्व में समूचा नगला गांव दो मील दूर जंगल में जाकर बस गया। बाद में यह आदेश वापस हुआ तो गांव के लोग घरों को लौटे। 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान उनको फिर जेल में डाल दिया गया। इसके बाद 1942 में वह काफी समय तक नजरबंद रहे।
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गांधी जी द्वारा प्रेरित नमक सत्याग्रह बदायूं में सबसे पहले गुलड़िया गांव से शुरू हुआ। गुलड़िया में नमक कानून तोड़े जाने की सूचना पूरे जिले में फैल गई और जिले में जगह-जगह लोग नमक कानून को भंग करने लगे। दूसरे कई जिलों के लोग भी सत्याग्रह में हिस्सा लेने के लिए बदायूं पहुंचने लगे। गांव में नमक कानून तोड़ने के लिए विशेष इंतजाम किए गए थे। नमक कानून भंग करते समय करीब 15000 लोग यहां मौजूद रहे।
कलक्ट्रेट में बना यह शहीद स्थल जिले के स्वतंत्रता संग्राम का गवाह है। न जाने कितने क्रांतिकारियों को यहां फांसी दे दी गई। बुजुर्ग बताते हैं कि इस जगह पर एक इमली का पेड़ था। इसी पेड़ पर लटका कर क्रांतिकारियों को या तो फांसी दी जाती थी या गोरे उनको गोलियों से भून देते थे।
है नमन उनको की जिनके सामने बौना हिमालय…