~ स्नेहा कुमारी
भारत की आजादी अर्जित की गई आजादी है। इसके अर्जन में कई वीरों का योगदान शामिल है। पर इतिहासकारो ने सबके साथ न्याय नहीं किया है। बहुत से क्रांतिकारियों ने योगदान तो दिया पर उन्हें नाम नहीं मिला। हालांकि, आम लोगों का इतिहास जो सिर्फ़ पुस्तकों तक सीमित नहीं होता, वह सबके साथ न्याय करता है। वह जानता है कि कर्म करने वाले इतिहास की पुस्तकों में दर्ज होने के मोहताज नहीं होते हैं। वीरता, पराक्रम और अदम्य साहस के हस्ताक्षर बाबू निशान सिंह ऐसे ही क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत क्षमता से अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी थीं।
यह वह समय था, जब देश में अंग्रेज़ी शासन अपने चरम पर था। प्लासी युद्ध के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी को पहली बार भारत में राजनीतिक सत्ता प्राप्त हो गई थी। अंग्रेजों के बंगाल विजय के बाद यहां की स्थिति ही बदल गई थी। आज का बिहार उस समय के बंगाल का हिस्सा था। अंग्रेजों के जुल्म, शोषण और यातना के कारण आम जन में अत्यंत आक्रोश था। यह आक्रोश किसी भी पल चिंगारी में बदल सकता था। अंग्रेज़ यह जानते थे इसलिए वो बड़ी चालाकी से फैसले ले रहे थे। प्रत्यक्ष कार्यवाही के बदले कूटनीतिक और रणनीतिक स्तर पर अधिक सतर्कता बरत रहे थे। अपनी फूट डालने की नीति से विभिन्न वर्गों के बीच अपने कृत्यों को वैधता प्रदान करने की कोशिश कर रहे थे। परंतु इसका असर अपनी मातृभूमि से असीम प्रेम करने वालों पर हो जाए, यह असंभव था। बिहार के सासाराम के निवासी बाबू निशान सिंह ऐसे ही सेनानी थे जिन्होंने अपने देश के लिए अपनी आहुति तक दे दी।
बाबू निशान सिंह का जन्म उस समय के शाहाबाद और वर्तमान के रोहतास जिले के सासाराम में हुआ था। वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ तथा वर्ष 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के समय उनके सैन्य संचालन के सेनापति बाबू निशान सिंह ने बिना किसी भय और चिंता के अंग्रेजों से लोहा लिया। वीर कुंवर सिंह के साथ मिलकर आरा संघर्ष और आजमगढ़ युद्ध में ब्रिटिश सरकार को धूल चटाई। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया था, तब निशान सिंह ने विद्रोही सेना का सहयोग किया और उनका खुलकर साथ दिया था। इसके बाद, उन्होंने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिल कर आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को अपने कब्जे में ले लिया। यह प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ो के विरुद्ध विद्रोह का आगाज और भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद था। अंग्रेजों ने निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिए अपनी सेना को आरा भेजा लेकिन निशान सिंह कानपुर के लिए निकल चुके थे। कानपुर में वह अवध के नवाब से मिले। नवाब ने निशान सिंह की वीरता को देखते हुए उन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त कर दिया। कार्य भार संभालने के लिए निशान सिंह जब आजमगढ़ वापस आ रहे थे तो अंग्रेजों से उनकी रक्तरंजित मुठभेड़ हुई।
बाबू कुंवर सिंह की मौत के बाद निशान सिंह का बाहुबल और उनकी अवस्था अब पहले की तरह नहीं रही, जिससे वह अंग्रेजों के साथ सक्रिय संघर्ष कर सकें। जब निशान सिंह अपने घर लौटे तो उनके रिश्तेदार प्रसन्न नहीं थे। उन्हें लगता था, निशान सिंह की उपस्थिति उनके जीवन और ज़मीन जायदाद के लिए संकट पैदा कर सकती थी तथा निशान सिंह की मृत्यु के उपरांत उनके रिश्तेदारों को दमन का सामना करना पड़ेगा। संबंधी संकट में न पड़ें, इसलिए वह गांव के समीप डुमर्खार के जंगल की गुफा में रहने लगे। गुफाओं में पालकी से जाते समय 5 जून 1858 को माल विभाग के डिप्टी अधीक्षक कैप्टन जी. नोलन ने एक हज़ार सैनिकों की टुकड़ी भेजकर निशान सिंह को पकड़ लिया।
6 जून 1858 को बिना कोई अपराध साबित किए साजिश के तहत उनपर मुकदमा चलाया गया। मुख पर बिना किसी चिंता और मृत्यु से निर्भीक निशान सिंह ने अदालत में अपना बयान दिया। पर अंग्रेज़ कहाँ न्याय की भाषा समझते थे! उन्हें 7 जून की सुबह तोप के मुंह पर बांधकर गोली से उड़ा दिया गया। इस तरह अपनी मातृभूमि से लड़ते हुए बिहार के एक छोटे से गांव के निशान सिंह खुशी से शहीद हो गए। रोहतास जिले के सासाराम के आम जनों में वह आज भी रचे-बसे हैं। निशान सिंह शहीद हो कर भी अपनी निशानी छोड़ गए हैं।
निशान सिंह अमर रहे
बहुत शानदार तथ्यों के साथ अच्छी लेखनी।