~ मोनिका रावत
भारत को आजाद हुए 73 साल होने को हैं। इस आजादी को पाने के लिए हमारे देश को एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। 1757 में पलासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश ने भारत में राजनीतिक सत्ता स्थापित की। यही वो समय था जब अंग्रेज भारत आए और करीब 200 साल तक राज किया। सबसे पहले उत्तर-पश्चिमी भारत अंग्रेजों के निशाने पर रहा और उन्होंने अपना मजबूत अधिकार 1856 तक स्थापित कर लिया था। इसका नतीजा था 1857 का विद्रोह और यह ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पहला संगठित आंदोलन कहलाया।
जिस स्वतंत्र भारत में आज हम श्वास ले रहे हैं उसे परतंत्रता की जंजीरों से मुक्त कराने में न जाने कितने ही क्रांतिकारियों ने अपने प्राण न्योछावर किए, सीने पर गोलियां खाईं और फांसी के फंदे को गले लगाकर अपना सर्वस्व न्योछावर करने में कभी पीछे नहीं हटे। देश के ऐसे ही क्रांतिकारियों में एक नाम है कालू मेहरा।
उत्तराखण्ड के पहले स्वतंत्रता सेनानी कालू सिंह मेहरा का जन्म लोहाघाट के पास एक गांव थुआमहरा के सामान्य परिवार में 1831 में हुआ।उत्तराखण्ड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ। इससे पहले यहाँ नेपाली गोरखों का शासन था। कालू सिंह महरा ने अपनी बाल्यावस्था में ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया।वे आजादी के
आन्दोलन को संगठित करने के लिए काली कुमाऊँ के इलाके में सक्रिय हुए। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊँ की भूमिका इतिहास के सुनहरे पन्नों में अंकित है।ब्रिटिश हुकूमत इस क्षेत्र से किसी भी बगावत के लिए तैयार नहीं थी। कालू सिंह महरा के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ काली कुमाऊँ के संग्राम ने ब्रिटिश हुकूमत को हतप्रभ कर दिया था। कालू महरा ने काली कुमाऊँ क्षेत्र की जनता को संगठित कर अंग्रोजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया। इस विद्रोह के नायक कालू महरा और उनके अभिन्न सहयोगी आनंद सिंह फर्त्याल, बिषना करायत, माधों सिंह, नूर सिंह तथा खुशा सिंह ने अपने प्राणों से बढ़कर देश की स्वतंत्रता को समझा और आंदोलन में उतर गए।सारी तैयारी कर लेने के बाद सबसे पहले लोहाघाट के चांदमारी में स्थिति अंग्रेजों की बैरकों पर हमला किया गया। इस अप्रत्याशित हमले के बाद ब्रिटिश सैनिक और
अंग्रेज अधिकारी भाग खड़े हुए और स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश हुकूमत की इन बैरकों को आग के हवाले कर दिया।
पहली लड़ाई में कामयाबी मिलने के बाद कालू महरा और उनके लड़ाकों ने नैनीताल और अल्मोड़ा की तरफ से काली कुमाऊँ की ओर आगे बढ़ रही ब्रिटिश सेना को रोकने के लिए पूरे काली कुमाऊँ में इस लड़ाई में स्थानीय जनता का सहयोग लेकर लड़ाई और तेज कर दी। अब कालू महरा के नेतृत्व में इस सेना ने बस्तिया की ओर आगे बढ़ना शुरू किया और यहाँ इन्हें रास्ते में छिपाए गए हथियारों और धन को लेकर आगे बढ़ना था। लेकिन अमोड़ी के नजदीक क्वैराला नदी के किनारे
बसे किरमौली गांव में छिपाए गए हथियारों और धन के बारे में किसी जासूस द्वारा अंग्रेजों को पहले ही सूचना दे दी गयी थी। कालू महरा और उनके दल के इस जगह तक पहुँचने से पहले ही ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा इसे कब्जे में ले लिया गया और इस तरह भीतरघात की वजह से सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा काली कुमाऊँ की जनता का यह आजादी अभियान बस्तिया में बिखर गया। कालू महरा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। कालू महरा को 52 जेलों में घुमाया गया और
उनके दो नजदीकी सहयोगियों, आनंद सिंह फर्त्याल तथा बिशन सिंह करायत को अंग्रेजों ने लोहाघाट के चांदमारी में गोली मार दी गयी।
काली कुमाऊँ की जनता ने इस बगावत का दंड लम्बे समय तक भुगता। 1937 तक काली कुमाऊँ के किसी भी व्यक्ति को सेना में भर्ती नहीं किया गया। अंग्रेज सरकार ने यहाँ के सभी विकास कार्य रुकवा दिए।कालू महरा के घर पर हमला बोलकर उसे जला दिया गया।इस दौरान ब्रिटिश सरकार के पक्ष में बयान देने वालों को बरेली में जागीरें दी गयी। 1856 से 1884 तक पौड़ी-गढवाल और कुमाऊँ क्षेत्र हेनरी रैमजे के शासन में रहा जिंहोंने उतराखंड में पनप रहे सभी आंदोलनों को रोकने का भरसक प्रयास किया। जो भी प्रभाव यहाँ भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पड़े उन्हें कमिश्नर हेनरी रैमजे ने कठोरता से समाप्त कर दिया।
कालू मेहरा और उनके साथियों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया और एक के बाद एक युवा स्वतंत्रता की इस लडाई में बढ़ चढ़कर अपना योगदान देने लगे। यूँ तो उत्तराखंड की इस पावन धरती से कई वीर पुत्र-पुत्रियाँ जन्में लेकिन उत्तराखंड के पहले स्वतंत्रता सेनानी की उपाधि से कालू सिंह मेहरा को नवाजा गया। आज भी उतराखंडी अपने वीर सपूतों की बलिदान गाथाएँ अपने बच्चों को सुनाते हैं और उनकी तरह बनने की सीख देते हैं।