रविवार का दिन, इम्तिहान समाप्त हो चुके थे तो शाम में कुछ करने को ज्यादा था नहीं। आश्रम से आ चुके थे और सूर्य भी ढलने को आ रहा था, काफी समय हो चला था तो सोचा आज चर्च होकर आया जाए। वस्त्र बदलने की ज़रूरत थी नहीं, कुर्ता सही ही मालूम पड़ता था, अब ईश्वर हो या लार्ड, भेजा हमें तो नग्न ही था उसने, तो जब उसी के घर जाना है, तो धोती-कुर्ता हो या सूट-पैंट फर्क ही क्या पड़ता है। 6 बजे की सभा थी, और हाल कहें तो वही जो किसी आश्रम का, किसी मंदिर का, किसी सत्संग का, या फिर कॉलेज के सेमिनार हॉल का, केवल चंद लोग, मुरझाये चेहरे, और आस किसी अदृश्य पर जो आएगा और जादू फेर सब ठीक कर जायेगा।
एक कोने में एक माँ जैसे-तैसे अपने बालक को शांत कर एक जगह बिठा ध्यान लगाने का प्रयास करती, वो झट उठ फिर अपनी मस्ती में लग जाता। जिस ईश्वर को सामने लकड़ी पर लटके ढूँढ रहे थे वह लोग, शायद वो तो उस बालक को कब का मिल चुका था। जिस आनंद में वो था, जिस अनंत में उसकी निगाहें अटकी थीं, निसंदेह ईश्वर स्थापित था वहां, किन्तु चेहरे पर चिंता की भय की, एक लकीर मात्र न थी। ईश्वर उसका माई-बाप थोड़ी था, दोस्त था उसका, पार्टनर-इन-क्राइम था साहब, पर आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि यह सारे लोग आखिर ढूँढ किसे रहे हैं, एक ही जहग पर मुझे टिकाके, खुद गंभीर चेहरे लिए न जाने चाह क्या रहे हैं ?
आनंद तो केवल दो ही चेहरों में नज़र आता था, एक उस बालक के और दूसरे सूली पर लटके उस नौजवान के।
पादरी ने प्रवचन किया, श्रद्धालुओं ने मिलकर कुछ गीत गाये और मॉस अपनी समाप्ति की ओर बढ़ चला उस प्रसंग के साथ जहां यीशु अपने आखरी भोज में हैं, अपने अनुयायियों से कहते हैं “ये लो अन्न का टुकड़ा और जानो की यह मेरा शरीर है जो मैंने मानवता की मुक्ति के लिए कुर्बान कर डाला”, और वैसा ही एक टुकड़ा एक बड़े बर्तन में डाल पादरी सभा की ओर बढ़ाया और श्रद्धालुओं की एक पंक्ति बन गयी उसे ग्रहण करने हेतु। था तो यह प्रसाद ही, और आस्था किसी की भी हो सम्मान योग्य है, तो मैं भी जा खड़ा हुआ पंक्ति में,जैसे ही पादरी ने प्रसाद थमाया, झट शक्ल निहारी और धडाक प्रश्न आया “आर यू अ क्रिस्चियन?” क्या फर्क पड़ता है क्रिस्चियन हो या नहीं , प्रसाद तो सबके लिया ही होता है, है न?
अब यहाँ अपने माथे पर तो आसमां में विराजमान दूसरे की स्टाम्प लगी थी, और सच पूछें तो तिलक हटाने की जरूरत ही क्या थी? आस्था के ही एक स्थान पर, आस्था का ही एक चिन्ह हो, विरोधास्मक इसमें आखिर क्या? पर यहाँ तो साहब दूसरी पार्टी का चिन्ह देख लिया, ये निशाँ तो ‘अपना’ था ही नही, अब पादरी जी प्रसाद दें तो दें कैसे, जिज्ञासा में पूछे उस प्रश्न का उत्तर भी प्रतिवादित ही मिला था उन्हें, तो कह ही दिए “दिस इस ओनली फॉर क्रिस्चियनस, नॉट फॉर यू” और हाथ से वापिस ले दूसरे सज्जन को दे दिए प्रसाद।
क्राइस्ट ने तो कहा कि पड़ोसी को अपने की तरह प्रेम करो, दुश्मनों से भी प्रेम करो, जो तुम्हे पत्थर तक मारे उसे भी फूल दो…. पर इधर से साहब ‘क्राइस्ट’ गायब थे कहीं.. जो तो दुश्मनों को भी अपनाने को कह गये, और यहाँ तो प्रसाद तक न था दूसरे के लिए।
क्या क्राइस्ट केवल एक गुट की मुक्ति चाहते थे ? क्या केवल मुट्ठी भर लोगों के लिए अपना शरीर त्यागा ? पर सच तो यह भी है कि क्राइस्ट स्वयं क्रिस्चियन थोड़ी थे, व़े एक विचार थे किन्तु मत या सम्प्रदाय थोड़ी थे, और आज तो यह भी लगा कि शायद ‘प्रेम’ और ‘बंधुत्व’ जैसे शब्द भी क्राइस्ट के साथ ही सूली चढ़ा दिए गए थे।
यीशु तो वो मसीह थे जिनके विषय में स्वामी विवेकानंद कहते थे “अगर वो क्राइस्ट आज होते तो मैं उनकेे चरण अपने हृदय केे लहु से धोता”। निसंदेह स्वामी जी ने ईसा को ईसाइयत के चश्मे से देखने को ही इंकार कर दिया था, वे तो केवल भक्ति, प्रेम और करुणा देख रहे थे और केवल वही अनुभव करना चाहते थे। किसी संस्थान से कोई मतलब न था, केवल भक्ति के अनुभव को दर्शा रहे थे वे।
क्राइस्ट तो शायद अब बहुत पीछे छूट गये थे, अब तो केवल एक रीत ही आगे बढ़ रही है, सिर्फ एक ढांचा, बिन आत्मा के। खलील जिब्रान सही ही तो कहे थे कि “जीसस क्या केवल यह सिखाने आये थे कि विशाल-भव्य चर्च कैसे बनाये जायें या मतान्तरण कैसे किये जायें ? तो जो ढांचा उनके नाम पे चल पड़ा वो यह क्यों सीखा ?” क्राइस्ट तो हृदय को ही गिरिजाघर बनाना चाहते होंगे, और यह गिरिजा पत्थर का हो ऐसी तो अपेक्षा न होगी।
ख्याल आया, गुरूद्वारे में तो केश कटे देख लंगर की थाल न छीनी, यद्यपि जूते सँभालने-चमकाने तक की व्यवस्था कर दी। मंदिर में तो नहीं पूछा कि जनाब दाढ़ी बढ़ा रखी है, इसी टीम के तो हो ना ? खैर यह सब सोचने का समय भी बचा न था, क्योकि पंक्ति पूर्ण हो चुकी थी, और प्रसाद वापिस जा चुका था।
शायद सेकुलरिज्म का भी भगवाकरण हो चुका था अब, शायद वो भी केवल मंदिर की घंटी बजा लौट चलता है अब। शायद तभी जिस सेकुलरिज्म की बाहर आयतें पढ़ी जाती थीं, वो अन्दर आ एक काफिर के भांति अंश भर मायिने न रखता था।
जहा इस काफिराना मिजाज़ पर श्रद्धालुओं को हैरत थी, वहां केवल दो ही चेहरे मुस्करा रहे थे, एक वो जो पंथ-रहित, प्रेम-सहित अध्यात्म की पराकाष्ठा करते-करते ही अपने अनुयायी द्वारा सूली पर चढ़ चुका था, और दूसरा वो बालक जो इन ‘गंभीर- चिंतित’ चेहरे लिए ‘आनंद’ का प्रचार करते जन-मानस पर चकित था, मानो दोनों ही जैसे कह रहे हों कि सत्य और प्रेम प्रतिष्टापन कर जो कुछ रहे, आत्मीयता तो अपना स्थान खो ही देती है।
मगर वाह रे सरज़मीं-ऐ–हिंदुस्तान, आज जब सोचा की चलो कम से कम क्रिसमस पर जन्मदिन की बधाई तो दे आएं तो वहां देखा बाहर मंदिर के भांति जूतों की पंक्ति, सिर पर रुमाल लगाये कुछ लोग और सूली के आगे लड्डू का भोग। दृश्य साफ़ था, यहाँ सबको कुबूला जाएगा, हर प्रेम-विचार को किन्तु अपने सांस्कृतिक ढंग से, स्वयं के वेष में। भारत माँ की पद्धति साफ़ थी, यहाँ अपने बच्चे में अंतर नहीं होगा, जहां मूल्यों को सिर-आँखों पर रखा जाता है बिना देखे कि वो किस समूह से आ रहे हैं, किस मत से आ रहे हैं, बशर्ते वो सत्य और प्रेम के प्रकाश की ओर पथ-प्रदर्शित करे। और शायद यही ख़ूबसूरती रही है इस मिटटी की, जहा बंधुत्व केवल प्रचार-पद्ध्ति नही अपितु जीवन पद्धति है।