साल था 1894, ये वो समय था जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत के लिए आक्रोश अपने चरम पर था, भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों की धमक यदा कदा सुनाई दे ही जाती थी| जहाँ एक तरफ क्रांतिकारी सशस्त्र विरोध प्रदर्शन में लगे हुए थे तो वहीँ लगभग एक दशक पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसे राजनितिक तरीकों से हासिल करने के पक्ष में थी| ये वही साल था जब चटगांव के नोआपाड़ा में सूर्य सेन का जन्म हुआ जिनको आगे चलकर “मास्टर दा” के नाम से भी जाना गया|
भारत के स्वतंत्रता संग्राम को जाने कितने ही क्रांतिकारियों ने अपने रक्त से सींचा है लेकिन बड़े ही अफ़सोस की बात है कि हम उनमे से कुछ को ही वो मान – सम्मान और तवज्जोह मिले जिनके वे हक़दार थे और न जाने कितने ही हाशिये पर रहे उनमे से ही एक थे “मास्टर दा”| हमारे सभी क्रांतिकारियों की सूची में मास्टर दा का नाम सबसे अग्रणी इस लिए भी होना चाहिए क्योंकि 1857 की क्रांति के बाद भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा अंग्रेजी हुकूमत पर की गई सबसे बड़ी और असरदार कार्यवाही के मास्टर माइंड ये ही थे, ये वही विद्रोह था जिसे हम “चटगाँव विद्रोह”के नाम से जानते हैं|
चटगाँव विद्रोह की तैयारियां सूर्य सेन ने बहुत पहले ही शुरू कर दी थीं जिसके लिए उन्होंने अपने कॉलेज के बच्चो व् अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर एक सेना तैयार की जिसका नाम “इंडियन रिपब्लिक आर्मी” था| जिसकी सहायता से उन्होंने 18 अप्रैल 1930 को बड़े ही नाटकीय ढंग से ब्रिटिश शस्त्रागार को लूट लिया|
मास्टर दा के कुछ विद्यार्थी ब्रिटिश शस्त्रागार में अंग्रेज अफसरों व् सैनिकों की भांति घुसे, इंडियन रिपब्लिक आर्मी के इन क्रांतिकारियों ने दो दलों में एक साथ एक ही समय पर चटगाँव के पुलिस शस्त्रागार और सहायक सैनिक शस्त्रागार को अपने कब्जे में ले लिया| दल के अन्य क्रांतिकारियों (जिनमे “गणेश घोष”, “निर्मल सेन”, “नरेश राय”, “लोकनाथ बल”, “अम्बिका चक्रवर्ती”, “शशांक दत्त”, “तारकेश्वर दस्तीदार”, “अरधेंधू दस्तीदार” आदि शामिल थे) ने सभी प्रकार के कम्युनिकेशन को ध्वस्त कर दिया, उन्होंने टेलीग्राम के तार काट दिए और रेल मार्गों को अवरुद्ध कर दिया इस प्रकार से पूरे चटगाँव में क्रांतिकारियों का ही अधिकार हो गया| चटगाँव में मास्टर दा ने राष्ट्रीय ध्वज फेहराया और वहाँ भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की|
लेकिन जल्द ही हजारों अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें जलालाबाद की पहाड़ियों पर घेर लिया जहाँ उन्होंने शरण ली हुई थी| सेन की युद्ध नीति और कौशल का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस जंग में जहाँ एक ओर 80 से भी ज्यादा अंग्रेज सैनिक मारे गये तो दूसरी ओर 12 क्रांतिकारी ही शहीद हुए| इसके बाद मास्टर दा अगले 3 सालों तक अंग्रेज सरकार की आँखों में धुल झोंकते रहे और क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करते रहे मगर दुर्भाग्यवश उनके ही मित्र “नेत्र सेन” ने उनके साथ विश्वासघात किया और उनकी मुखबिरी कर दी| उन्हें 16 फरवरी 1933 को नेत्र सेन के घर से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया| उन्हें जेल में अनेकों अमानवीय यातनाएं दी गई तथा अंत में उन्हें बेहोशी की हालत में फांसी दे दी गई और रातों रात ही उनके शव को बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया|
महान क्रन्तिकारी सूर्य सेन के बारे में महज़ कुछ ही लोग जानते हैं जिनमे से अधिकाँश बंगाल प्रान्त के हैं| हालांकि उनके जीवन और चटगाँव विद्रोह पर दो फिल्मे क्रमशः 2010 व् 2012 में “खेलें हम जी जान से”और “Chittagong” के नाम से बनी लेकिन बावजूद इसके मास्टर दा को हम अपने दिलों में, पाठ्यक्रम में वो स्थान न दे पाए जो एनी केन्द्रीय क्रांतिकारियों को मिला|
अनुराग ‘अमन’ बाजपेई