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आज़ादी के संघर्ष के पन्नों में बंद हूल दिवस का इतिहास

~ कोमल बेहेल

भारत को आज़ादी मिले हुए 74 वर्ष हो चुके हैं। 15 अगस्त के दिन भारत स्वतंत्रता दिवस बड़े ही धूमधाम से मनाता हैं । देश का कोना कोना राष्ट्रीय ध्वज से सज़ा मिलता है।चारों ओर राष्ट्रगीत बजते हैं। 15 अगस्त 1947 वह भाग्यशाली दिन था जब भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्वतंत्र घोषित किया गया। भारत की आज़ादी की बात करें तो हमें 1857 में मेरठ में हुए स्वतंत्रता संग्राम के बारे बताया जाता हैं। 1857 का संग्राम ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक बड़ी और अहम घटना थी। इस क्रांति की शुरुआत 10 मई, 1857ई. को मेरठ से हुई, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गई। लेकिन 1857 से पहले भी कई क्षेत्रों में अंग्रजों के ख़िलाफ़ लोग आवाज़ उठाते थे और इन सभी में सबसे ज्यादा प्रभावशाली झारखंड के चार भाइयों द्वारा 1855 में लड़ी गई लड़ाई थी जिससे झारखंड में हूल दिवस के तौर पर याद किया जाता हैं लेकिन अफ़सोस ये लड़ाई इतिहास के पन्नों में कहीं दब कर रह गई है।

हूल दिवस की कहानी

संथाली बंधू सिद्दो-कान्हो को दर्शाती कलाकृति

संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है विद्रोह। आग के लिए छोटी-सी चिनगारी काफी होती है। अंग्रेज सरकार ने जमीन पर मालगुजारी वसूली कानून लादा था और दिनोदिन उसकी रकम बढ़ायी जाने लगी। यह संतालों के आक्रोश का बुनियादी कारण बना। संताल परगना में संतालों ने जंगल साफ कर खेत बनाये थे। अंग्रेज हुकूमत के रिकार्ड के अनुसार संतालों से 1836-37 में जहां मालगुजारी के रूप में 2617 रु. वसूल किया जाता था, वहीं 1854-55 में उनसे 58033 रु. वसूल किया जाने लगा था। 1851 के दस्तावेजों के अनुसार संताल परगना में उस वक्त तक संतालों के 1473 गांव बस चुके थे। मालगुजारी वसूल करने वाले तहसीलदार मालगुजारी के साथ-साथ संतालों से अवैध तरीके से अतिरिक्त धन वसूल करते थे। तहसीलदारों की लूट ने संतालों के आक्रोश की आग में घी का काम किया।

और इसी के साथ 30 जून, 1855 को झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और 400 गांवों के 50 हज़ार से अधिक लोगों ने भोगनाडीह गांव पहुंचकर दो आदिवासी भाई सिद्धू, कान्हू की अगुआई में जंग का एलान कर दिया. इसी के साथ सिद्धू के दो और भाई चांद ,भैरव और बहन फूलो और झानो ने अंग्रेजों और महाजनों से जमकर लोहा लिया साथ ही करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो का नारा भी दिया। विद्रोह में करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। ऐसा कहा जाता हैं कि सिद्धू और कान्हू के साथियों को पैसे का लालच देकर दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई थी।

इस विद्रोह का जिक्र कार्ल मॉर्क्स ने अपनी पुस्तक “नोट्स टू इंडियन हिस्ट्री” में एक जनक्रांति के रूप में बताया है। लेकिन विडंबना यह है कि इतने बड़े विद्रोह का ज़िक्र आज भारत के इतिहास के पन्नों में कहीं दब कर रह गया है यहां तक कि झारखंड राज्य का बोर्ड जिसे जैक बोर्ड नाम से जाना जाता है वो भी अपनी किताब में इस विद्रोह की बात विस्तार रूप से नही करता लेकिन आज भी झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में 30 जून को भोगनाडीह में हूल दिवस पर सरकार द्वारा विकस मेला लगाया जाता है एवं विर शहिद सिद्धु-कान्हू को याद किया जाता है।

Campus Chronicle

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