स्वामी विवेकानंद, एक ऐसा नाम जिसे भारत और हिंदुत्व को पहली बार विश्व पटल पर स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है, जिसने गुलाम भारत की सपेरों और तांत्रिकों वाली छवि को अपने ओजस्वी व्यक्तित्व तले दबा दिया और जो आज तक युवाओं के लिए उत्कृष्ट प्रेरणास्रोत है। केवल 39 वर्ष की युवावस्था में परम मोक्ष की प्राप्ति करने वाले विवेकानंद जी सदैव ही युवा शक्ति पर ज़ोर देते थे। ये कहना कि स्वामी विवेकानंद ही युवा शक्ति को पहली बार पहचानने में सफल हुए बिलकुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे ही एक बार युवाओं को सम्बोधित करते हुए स्वामी जी ने कहा कि, “मुझे केवल 100 युवक-युवती दो, केवल 100 युवा लोग जो स्वयं प्रेरणा से, निःस्वार्थ हो कर मेरे साथ भारत माता के लिए काम करें और मैं अगले कुछ ही वर्षों में भारत राष्ट्र को पूर्ण कायाकल्प कर दूँगा।”
स्वामी जी का यह कथन आज की परिस्थितियों में और भी प्रासंगिक एवं चिंतन योग्य विषय बन जाता है।
भारत काफी समय से इस बात को बार-बार बोल रहा है, चिल्ला रहा है और ढोल-नगाड़े पीट रहा है कि हम सबसे युवा राष्ट्र हैं। बार-बार विश्व पटल पर ये बताया जाता है कि भारत की 65% आबादी 35 या 35 से कम आयुवर्ग की है। विशेषतः जबसे पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा कि 2020 तक युवा शक्ति के बल पर भारत विश्व की महान शक्तियों में से एक होगा, हम लोगों ने तो इसी बात पर छाती चौड़ी करनी शुरु कर दी है। हमने पूरे विश्व को यह तथ्य मानने पर मजबूर कर दिया है कि हम सबसे युवा देश है। इसी का परिणाम निकला कि कई देश हमारी बढ़ती शक्ति को महसूस करते हुए हमारे साथ आ रहे हैं। लेकिन क्या किसी ने इस बात पर ध्यान दिया है कि इस अनंत शक्ति को कैसे नियंत्रित करना है और कैसे इसे सही दिशा देनी है ? क्या केवल यह मान लेने से कि हमारे पास शक्ति है मगर उस शक्ति का उपयोग न करने से हम विश्व गुरु बन जाएंगे ?
हमें इस समय इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि हमारा युवा वर्ग किस दिशा में बढ़ रहा है। इस बात को दो दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। पहला है प्रशासनिक दृष्टिकोण। क्या भारत की केेंद्र और राज्य सरकारें युवाओं को अपेक्षित व अनिवार्य अवसर दे रहीं है ? इतनी बड़ी युवा आबादी का एक बड़ा भाग अब भी प्राथमिक शिक्षा के अभाव में है। अगर शिक्षा मिल भी रही है तो उसका स्तर अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में कहाँ तक टिक सकता है। और इसके बाद भी रोज़गार की उपलब्धता कितनी है ये अपने-आप में एक बड़ा बहस का मुद्दा है।
दूसरा दृष्टिकोण ये कि क्या नई पीढ़ी को सही दिशा देने का जो दायित्व पिछली पीढ़ी को प्रवृत्ति के रूप में मिलता है, क्या वो दायित्व पूरी निष्ठा से निभाया जा रहा है। विशेषतः युवा वर्ग का वो तबगा जिसके पास मूलभूत सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, अपनी पितृ पीढी के उदासीन रवैये से संघर्षहीन व पुरखों की बैठे खाने के शौकीन हो रहे हैं। आज के नवयुवक देश के बजट से ज़्यादा इस बात में रुचि रखते हैं कि फलाने रियलिटी शो में किस अभिनेता ने किस अभिनेता को क्या गाली दी। क्योकि हमारी पीढी से पहली वाली पीढी ने हमें नैतिकता समझानी शायद आवश्यक ही नहीं समझा और हमें बताया ही नहीं कि बौद्धिक स्तर बढ़ाने का स्त्रोत क्या है जिसके कारण इस युवा शक्ति का एक बड़ा भाग अपने बेहतर भविष्य के लिए एक नीति या योजना नहीं अपितु तस्वीरों के लिए तरह-तरह के चेहरे बनाने में अपनी असीम ऊर्जा व्यर्थ कर रहा है। इस उदासीनता का दोषी केवल पिछली पीढ़ी को ही कहना भी गलत ही होगा क्योंकि हमारी पीढ़ी का जो एक अल्प भाग भी अपने बौद्धिक स्तर को स्थिर बनाने में सफल हुआ है उसने भी आने वाली पीढ़ी को प्रभावित करने की कोई पुख्ता योजना बनाने की इच्छा भी नहीं जताई है।
राष्ट्र की प्रोन्नति के लिए उपयोग की जाने वाली किसी भी शक्ति में हर वर्ग के कुछ दायित्व होते हैं जिनके निर्धारित समन्वय के अभाव में प्रोन्नति को शुद्ध रूप से प्राप्त करना केवल दूर के ढोल ही हो सकते हैं। ऐसे में अपने व्यक्तिगत स्तर पर अपना दायित्य समझना और उदाहरण बन कर दूसरों को प्रभावित करते रहने से प्रशासनिक व नैतिक दोनों दृष्टिकोण से लक्ष्य प्राप्त करना अवश्यंभावी होगा।
बेशर्त आजाद होना