–Written By Dr Rajesh Ganesh Parthsarthi
स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत की परिकल्पना भी चिकित्सकों द्वारा समाज के स्वास्थ्य की चिंता व महत्त्वपूर्ण योगदान के बगैर संभव नहीं है। जब चिकित्सक समस्त मानव जाति को स्वस्थ रखने के लिये हिपोक्रेटिक ओथ लेते हैं तब उनके सोच से भी यह बात परे होती है कि खुद उन्हें अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य के विषय में किसी विशेष व्यवस्था की जरुरत है। प्रतिस्पर्धा के दौर में समाज उस दोराहे पर खड़ा है जहां या तो चिकित्सकों को ऐसा वातावरण दिया जाये कि वो अपना सबकुछ दाव पर लगा हर बीमारी से लड़ें, हर रोगी को स्वस्थ करें , जिसकी स्वस्थ राष्ट्र निर्माण में सकारात्मक भूमिका हो और जल्द ही भारत ५ ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था हो या फिर दूसरे पक्ष में भी इतनी सच्चाई नज़र आती है कि भीड़तंत्र की व्यवस्था में चिकित्सक काम करते डरें, डिफेंसिव मेडिसिन अपनायें, चिकित्सा मंहगी हो, नौजवान साथियों में चिकित्सक बनने की प्रेरणा का अभाव हो और समाज और सरकार को स्वास्थ्य संबंधी जरुरतें पूरी करने में लाखों जद्दोजहद हो और हम ह्यूमन इंडेक्स में हमेशा पीछे नजर आयें।
आइये ऐतिहासिक व सामाजिक दृष्टि से देखें कि चूक कहां है और व्यवस्था कैसे दुरुस्त हो सकती है–
एलोपैथी के अंग्रेजों के भारत आगमन के साथ प्रादुर्भाव से पहले वैद्य व हकीम द्वारा चिकित्सा व्यवस्था थी जो अमूमन समाज में अग्रज की भूमिका में थे, ‘चिकित्सा-सेवा’ रोग निवारण से ज्यादा रोगी को स्वस्थ करना और समुचित समाज निर्माण में अपने उत्तरदायित्व के वहन से जुड़ा था। इसके विपरीत अंग्रेजी व्यवस्था की शुरुआत ‘शिप सर्जन’ के आगमन के साथ हुई जो अंग्रेजी जहाज में आते थे अंग्रेज अधिकारियों की देखरेख के लिए ताकि उनका व्यापार व साम्राज्य विस्तारित हो सके। एक प्रकरण उदाहरण के तौर पर- तत्कालीन मुगल सम्राट शाहजहां की २४ वर्षीय पुत्री के आग से जलने के पश्चात जब हकीमों ने हाथ खड़े किये तो किसी ने विशेषज्ञ अंग्रेज सर्जन के बाॅम्बे में होने की बात कही। उन्हें बुलाया गया और उनके देखभाल व ईलाज से लड़की भली चंगी हो गयी। खुश हो शाहजहां ने ईनाम मांगने को कहा।
सर्जन ने बंगाल के ‘फोर्ट विलियम्स’ और आस पास के इलाके का ट्रेडिंग राइट्स मांगा। सेवा के विपरीत मुनाफा कमाना व ब्रिटिश साम्राज्य बढाना – ये भाव यहां परिलक्षित होता है। इस प्रणाली से ब्रिटिश एलोपैथी सिस्टम जन्मा और बढा जो आज भी सिविल सर्जन और मिलीटरी सर्जन के रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री व नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘ ‘ आडिया आफ जस्टिस ‘ में इनफार्मेशन एसिमेट्री का जिक्र किया है जो चिकित्सा क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है कि रोगी के रोग से जुड़ी अधिकतम महत्त्वपूर्ण जानकारियां सिर्फ चिकित्सकों को ज्ञात है जो उन्हें वह स्थान देता है कि वो लाभार्थी का शोषण कर सकते हैं।
जब चिकित्सा शास्त्र के पास देने के लिए बहुत कम था तो समाज में चिकित्सकों की महती प्रतिष्ठा थी, आज विज्ञान के आविष्कारों की बदौलत असंभव भी संभव किया जा सकता है चिकित्सकों द्वारा, पर अब अविश्वास अपने चरम पर है।
विरोधाभास की स्थिति है । कल तक हम चिकित्सक के ईश्वरत्व के भाव से संतुष्ट थे , आज हम चाहते हैं कि चिकित्सक दस सर और बीस हाथों से काम करे और फिर भी रावण के बिल्कुल विपरीत, देवत्व को प्राप्त हो, कैसे संभव है?
ऐसे में जरूरी क्या है ?
सर्वप्रथम तो चिकित्सक भी हाड़ मांस का पुतला है। दिमागी ,शारीरिक व पारिवारिक जरुरतें उसकी भी उतनी ही है जितनी किसी भी अन्य इंसान की। अपेक्षाओं में सामंजस्य की स्थिति होनी चाहिये। अगर समाज और देश के करदाताओं के पैसे और स्कालरशिप के पैसे से चिकित्सक की पढाई होती है , तो समाज के प्रति चिकित्सकों का दायित्व है कि किसी रुप में सेवा द्वारा उसकी वापसी हो। मेरिट से सरकारी व्यवस्थाओं से पढे चिकित्सक सभी रोगियों के लिए उपलब्ध होंगे , निकट भविष्य में ये संभव नहीं। विकल्प क्या हैं ? प्राईवेट मेडिकल कालेजों की बढती संख्या और उनमें लाखों खर्च करके बनने वाले चिकित्सक भी आज का सच है इसे नकारा नहीं जा सकता। अंग्रेजी व्यवस्थाओं में पढे, मुनाफे की मानसिकता के साथ आजीविका अपनाने वाले चिकित्सकों से, जिनका काफी पैसा कर्ज व अन्य माध्यमों से पढाई पर खर्च हुआ हो और जो कार्पोरेट अस्पतालों में काम कर पैसा अर्जित कर कर्ज चुकाने को प्रतिबद्दध हों, उनसे बहुत सेवाभाव की अपेक्षा भी गैरलाजिमी है। ऐसे में झोलाछाप और बगैर पेशेवर शिक्षा प्राप्त किये लोग दायें बायें ईलाज कर काम खराब करते हैं आमजनो का सही चिकित्सकों पर भी विश्वास कम करने का कारण बन जाता है।
चिकित्सा क्षेत्र जो खुद ही बीमार हो गया है, को कैसे स्वस्थ किया जाये: कुछ सुझाव:–
१. भोर कमिटी , जिसने आजादी के वक्त जी डी पी का १५ प्रतिशत
चिकित्सा क्षेत्र पर खर्च करने की बात की थी, जिससे १००० चिकित्सा महाविद्यालय सरकारी क्षेत्र में खोले जा सकें, के आस पास भी आज भी हम नहीं हैं। हर बीमार को हम चिकित्सक, नर्स और दवाईयां समुचित रूप से उपलब्ध करा पायें, ये कोसों दूर की बात लगती है। बेहतर होगा हम बीमारी कम करें और कम लोग बीमार हों, इसकी व्यवस्था बनायें। नर्स और फार्मेसिस्ट को सशक्त करें ताकि वो भी स्वतंत्र रूप से ईलाज में कुछ भूमिका निभा पायें। प्राइमरी हेल्थकेयर को ज्यादा मजबूत करें ताकि कम लोगों को टर्सियरी केयर की जरुरत पड़े। पब्लिक हेल्थ इतना सशक्त हो कि प्राइवेट हेल्थ की जरुरत ही काफी कम लोगों को हो।
२. होलिस्टिक चिकित्सा पद्धति अपनायें, सभी पैथी में समन्वय का भाव हो और लोगों को ज्यादा से ज्यादा इंनफार्म्ड च्वायस हो कि वो किस पद्धति से कम पैसे में समुचित लाभ पायें। भारतीय प्रणालियों को एलोपैथी के साथ इंटिग्रेट करके इंडियनाइज्ड किया जाये व चिकित्सकों को मेडिकल इथिक्स की ठोस जानकारी हो जो उन्हें देश काल और स्थिति के अनुसार निर्णय की क्षमता प्रदान करे।
३. समय और जरुरत के अनुसार नियम और पालिसी में बदलाव हो और उचित कार्यान्वयन द्वारा समाज के सभी वर्गों को विश्वास हो कि फैसले उनके हित में लिये जायेंगे। सिविल सेवा की भांति अखिल भारतीय चिकित्सा सेवा का स्वरुप भी विचारणीय है जिससे समाज के हर तबके को उचित चिकित्सा व्यवस्था का लाभ मिले।
आयुष्यमान भारत योजना पर बढ चढकर कार्य करने की आवश्यकता है, ओबामाकेयर, यूनिवर्सल हेल्थकेयर व चिकित्सा का अधिकार के बिन्दुओं को समाहित करते हुए।
अंतत: , कोई भी प्रयास सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकता, परन्तु जो कदम हेल्थकेयर जस्टिस के पहुंच को आगे बढाते रहने के लिये जायेंगे वो सामाजिक न्याय से जुड़ा होने की वजह से समस्त वर्गों को सुरक्षित रखते हुए स्वस्थ सुंदर भारत का निर्माण करेगा वसुधैव कुटुंबकम् के भाव से, लेखक का ऐसा विश्वास है।
(The author is a renowned medical practitioner and healthcare activist)