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कालिख पोत कर सावरकर को काला नहीं कर सकते

— साभार मृणाल प्रेम


इनकी सावरकर से दुश्मनी केवल इसलिए है क्योंकि वह हिंदूवादी थे, और कॉन्ग्रेस की राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण की है। हिन्दूफ़ोबिया इनकी वैचारिक नसों में है, तो इसलिए हिन्दू हितों की बात करने वाले को खलनायक या कमज़ोर दिखाना तो हिन्दूफ़ोबिया की तार्किक परिणति होगा ही।

कॉन्ग्रेस के छात्र संगठन ‘नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI)’ ने आधी रात में वीर सावरकर की प्रतिमा को जूतों का हार पहनाया और चेहरे पर कालिख पोत दी। ऐसा करके वो यह सोच रहे होंगे कि सावरकर के पूरे योगदान पर कालिख पोत डाली। लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि आजादी के इतिहास पर कॉन्ग्रेसियों की बपौती नहीं। भले ही, कॉन्ग्रेस चाटुकार, उपन्यासकार रुपी इतिहासकार और नेहरू घाटी सभ्यता में पले नेताओं के लिए नेहरू ही पिस्तौल लेकर अल्फ्रेड पार्क गए थे, 23 मार्च 1931 को फाँसी भी नेहरू ही चढ़े, लंदन में जनरल डायर को भी नेहरू ने ही मारा… वस्तुतः नेहरू दशावतार में 11वें थे, लेकिन वास्तविकता इससे ज्यादा दूर नहीं हो सकती थी।

मैं हाल ही में वित्त मंत्रालय के प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल का एक पुराना वीडियो देख रहा था जिसमें वह हिंदुस्तान का इतिहास हिन्दुस्तानियों द्वारा लिखे जाने पर बल देते हैं। अंग्रेजों द्वारा बोगस ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ (‘आर्यन इन्वेज़न थ्योरी’), भारत के इतिहास में केवल बाहरी संस्कृति और धर्म के लोगों के बारे में पढ़ाए जाने आदि को ब्रिटिश शासन का नैतिक औचित्य तैयार करने में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने इस ओर इंगित किया किया कि आर्य आक्रमण सिद्धांत ने हिन्दुस्तानियों में यह भ्रान्ति भर दी कि हज़ारों वर्ष से बाहरियों से शासित होते रहना ही उनकी नियति है, तो एक और शासक (अंग्रेज़ों) के बूटों तले पिसने में अलग क्या है?

इसी तरह केवल आक्रांताओं की जीत का इतिहास पढ़ाना और इस देश के व्यक्तित्वों, जैसे ललितादित्य मुक्तपीड़, सुहेलदेव पासी (जिन्होंने 1033 में बहराईच की लड़ाई में मुहम्मद ग़ज़नवी के भतीजे को वह धूल चटाई कि अगले 170 साल इस्लामी आक्रांता हिंदुस्तान का रुख करने में घबराते रहे), डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ही नहीं, कम्पनी तक की कब्र खोद देने वाले केरला के शासक मार्तण्ड वर्मा आदि को हटा देने से ‘हम जब सारी लड़ाईयाँ हार ही जाते रहे हैं तो अंग्रेज़ों से भी हार गए’ का झूठा कथानक (नैरेटिव) गढ़ना आसान हो गया।

भ्रामक प्रोपेगेंडा पढ़ाएँगी किताबें
राजस्थान की इतिहास की किताबों में कॉन्ग्रेस लिखवा रही है कि सावरकर ने अपने साथ सेल्युलर जेल में हुए अत्याचार से टूट कर जेल से छूटने के लिए खुद को ‘पुर्तगाल का बेटा’ कह दिया, जेल से निकलने के बाद उन्होंने गाँधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का समर्थन नहीं किया, हिन्दुओं को ‘मिलिटराइज़’ करने (सीधी भाषा में, हिन्दुओं में नक्सली और तालिबान जैसे तत्व खड़े करने) का आह्वाहन किया, और गाँधी जी की हत्या के बाद उन्हें भी उस हत्या के मुकदमे में नामजद किया गया था।

ऊपरी तौर पर यह सभी ‘तथ्य’ सही मालूम पड़ते हैं- सिवाय इसके कि सावरकर ने खुद को ‘पुर्तगाल का बेटा’ (son of Portugal) नहीं, ‘भटका हुआ बेटा’ (Prodigal Son) कहते हैं। लेकिन इतिहास केवल सूखे तथ्यों से नहीं बनता, न ही परिप्रेक्ष्य, पृष्ठभूमि और परिणाम से काट कर किसी घटना का विश्लेषण किया जा सकता है। और इन सभी घटनाओं को, जो सावरकर के खिलाफ जाती हुई दिखतीं हैं, परिप्रेक्ष्य, पृष्ठभूमि और परिणाम के प्रकाश में देखें तो तस्वीर पूरी तरह बदल जाती है।

सबसे पहले उनके खुद को ‘(अंग्रेज़ सरकार का) भटका बेटा’ कहने की अगर बात करें तो यकीनन उन्होंने ऐसा कहा ज़रूर (वैसे जिस दया-याचिका में यह कहा गया, वह 14 नवंबर 1911 की नहीं, 1913 की है। यह ‘भूल’ जान कर की गई, ताकि इंटरनेट पर ढूँढ़ने वालों को असली दस्तावेज मिलने में परेशानी हो, या फिर मात्र एक लिपिकीय/टाइपिंग की गलती है, वह अलग ही मसला होगा), लेकिन जिस पत्र में उन्होंने यह कहा, यदि उसे पूरा पढ़ा जाए तो हम पाएँगे कि यह ‘दया-याचिका’ कम, और राजनीतिक/मानवाधिकारों का माँग-पत्र अधिक है।

इसमें वे अंग्रेज सरकार के चरणों में नहीं गिर जाते। विनम्र लेकिन स्पष्ट शब्दों में अपने साथ हो रहे भेदभाव और अत्याचार, मसलन ‘विशेष कैदियों’ की श्रेणी के लाभ न देना लेकिन उसमें उल्लिखित प्रतिबंध अवश्य लगाना, कोल्हू में जोत कर काम कराना, उसी जेल में बंद दुर्दांत अपराधियों को सेल के बाहर खुली हवा में जाने का समय देना लेकिन सावरकर को न देना, का उल्लेख करते हुए वह सरकार पर न्यायपूर्ण तरीके से जेल प्रशासन चलाने का दबाव बनाते हैं। केवल और केवल अंत में जाकर वह खुद को ‘भटका हुआ बेटा’ बताते हुए सरकार को आश्वासन देते हैं कि यदि सरकार उन्हें रिहा कर दे तो वह सरकार के प्रति वफादार रहेंगे।
लेकिन क्या महज़ इन शब्दों के आधार पर उन्हें कायर या गद्दार करार दिया जा सकता है? सावरकर के जीवनीकार जेडी जोगलेकर के अनुसार, “क्या लेनिन ने पूँजीपति जर्मन राजा कैसर विल्हेल्म का सील ट्रेन (में बैठकर जर्मनी से गुज़र कर रूस पहुँचने) का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था (जबकि लेनिन पूँजीपतियों से घृणा करता था)? उस ट्रेन में बैठकर रूस पहुँचे लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व किया और सत्ता हासिल की। स्टालिन ने अपने परमशत्रु हिटलर के साथ समझौता किया। जो लेनिन और स्टालिन के मामले में प्रशंसा-योग्य है, वह सावरकर के मामले में निंदनीय हो जाता है। पीलिया की आँख से सब कुछ पीला ही दिखेगा।”

देश के अंदर भी उदाहरण हैं। शिवाजी ने भी बंदी बनाए जाने पर नम्रतापूर्ण पत्र लिखकर कैद से आजादी पाई, और उसके बाद मुगलों और आदिलशाही सल्तनत के पाँव भी उखाड़े, गर्दनें भी उड़ाईं। उसी तरह सावरकर ने भी अंततः आज़ाद होने के बाद अंग्रेज़ों की गुलामी नहीं की, हिन्दू महासभा का नेतृत्व किया। साक्ष्य अगर और चाहिए, तो और भी हैं। जिस अंग्रेज अफ़सर क्रेडॉक ने उनकी याचिका का विश्लेषण किया, उसने लिखा, ‘सावरकर कितना बड़ा खतरा होगा, इसका मूल्यांकन उसके जेल के अंदर व्यवहार से अधिक इस पर होगा कि बाहर क्या परिस्थितियाँ हैं। और बाहर 10-15-20 साल में क्या परिस्थितियाँ होंगी, कहा नहीं जा सकता।’
अब बाकी आरोपों को भी देखें तो वह भी पूरी तरह संदर्भ से परे तथ्यों को पकड़कर ‘फेक न्यूज़’ पढ़ाने से अलग कुछ नहीं है। गाँधी जी की हत्या में अगर ‘नामजद’ होने भर से सावरकर इतने बुरे हो गए तो सरकार उन्हें 1 महीने की भी सज़ा क्यों नहीं दिला पाई? क्यों गाँधी की हत्या के 18 साल बाद हुई सावरकर की मृत्यु के बाद भी उन्होंने सावरकर की स्मृति में डाक टिकट जारी किया, और उनकी स्मृति में ₹11,000 दान किए? हिन्दुओं को ‘मिलिटराइज़’ करने की जहाँ तक बात है तो ‘अहिंसक’ हिन्दुओं का नोआखली, कलकत्ता और पंजाब में जो हाल हुआ, उसे देखते हुए कहाँ तक गलत थे सावरकर? अपने सम्पूर्ण लेखन में सावरकर यह बार-बार साफ करते हैं कि वह हिन्दुओं को आत्मरक्षा में सक्षम होने का आह्वाहन कर रहे हैं, अन्य समुदायों के प्रति हिंसा शुरू करने का नहीं।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का समर्थन करने या न करने की जहाँ तक बात है तो उनकी किताब ‘हिन्दू राष्ट्र दर्शन‘ में वह साफ़ लिखते हैं कि उन्होंने समर्थन इसलिए नहीं किया क्योंकि कॉन्ग्रेस यह आश्वासन देने में नाकाम रही कि जिन्ना की विभाजन की माँग किसी भी कीमत पर नहीं मानी जाएगी, और किसी प्रान्त को अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय संघ से पृथक होने का अधिकार नहीं दिया जाएगा। आज अगर हम विभाजन को भूल मानते हैं, तो उसका विरोध करने की दूरदृष्टि रखना ही क्या सावरकर का अपराध था?
सावरकर का गलत चित्रण बिलकुल गलत है, लेकिन आप कर क्या लेंगे?

अब सवाल यह है कि कॉन्ग्रेस अगर सावरकर का गलत चित्रण करने पर उतारू है ही तो पहले तो ऐसा क्यों, और दूसरा इसमें किया क्या जा सकता है।

तो पहले सवाल का जवाब तो एकदम साफ़ है- सावरकर से दुश्मनी केवल इसलिए है क्योंकि वह हिंदूवादी थे, और कॉन्ग्रेस की राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण की है। हिन्दूफ़ोबिया इनकी वैचारिक नसों में है, तो इसलिए हिन्दू हितों की बात करने वाले को खलनायक या कमज़ोर दिखाना तो हिन्दूफ़ोबिया की तार्किक परिणति होगा ही।

दूसरा सवाल यह कि इसके लिए किया क्या जा सकता है। तो इसका पहला जवाब ‘कॉन्ग्रेस हटाओ’ हास्यास्पद रूप से नाकाफ़ी है। यह नैरेटिव (कथानक) की लड़ाई है, और इसमें दिल्ली (या किसी भी प्रदेश की राजधानी) में बैठा शासनिक मुखिया का हस्तक्षेप अविश्वसनीय रूप से सीमित होता है। आज कम्युनिस्टों के मुट्ठी भर विधायक और साँसद होने के बावजूद उनका फ़र्ज़ी कथानक अकादमिक सत्य है, और सच हमारे साथ होते हुए भी हिन्दू जदुनाथ सरकार-आरसी मजूमदार के बाद एक अदद इतिहासकार और सीताराम गोयल के बाद एक पठनीय ‘राइट विंग बुद्धिजीवी’ के लिए तरस रहे हैं।

जैसा कि संजीव सान्याल ने ऊपर कहा, यह सवाल कहानी सुनाने का है, सत्ता की गद्दी कब्जियाने का नहीं। तो बेहतर होगा हिन्दू हर बात में राजसत्ता का मुँह देखने की बजाय खुद अपनी कहानियाँ पहले जानने और फिर सुनाने में समय, धन और श्रम का निवेश करें। जब तक यह नहीं होगा, परिवर्तनशील सत्ता के साथ सावरकर जैसे हिंदूवादियों का अपमान बदस्तूर जारी रहेगा, हम इस पर आउटरेज करते रहेंगे, आप फेसबुक पर ‘एंग्री रियेक्ट’ करते रहेंगे, लेकिन बदलेगा कुछ भी नहीं। एक तिनका भी नहीं।

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