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फिल्म समीक्षा: लापता लेडीज़

  • रिलीज़ की तारीख: 1 मार्च, 2024
  • निर्देशक : किरण राव
  • निर्माता: आमिर खान, किरण राव, ज्योति देशपांडे
  • संगीत निर्देशक: राम संपत छायाकार: विकाश नौलखा
  • संपादक: जबीन मर्चेंट रेटिंग : 8.5/10
  • लेखक :स्नेहा देसाई, बिप्लव गोस्वामी
  • समय: 122 मिनिट
  • कलाकार: नितांशी गोयल, प्रतिभा रांटा, स्पर्श श्रीवास्तव, रवि किशन, छाया कदम

कहानी : कहानी शुरू होती है, एक गाँव में हो रही शादी से| मूलत: सारी पटकथा घूमती है ट्रेन में बदल गयी फूल और पुष्प के इर्द गिर्द |

निर्मल प्रदेश नामक काल्पनिक क्षेत्र में वर्ष 2001 में की है, जहाँ दीपक अपने ससुराल से फूल को लेकर खचाखच भरी ट्रेन में सफर कर रहा है चूंकि शादी का सीज़न है इसी लिए ट्रेन में कई और नव विवाहित जोड़े भी बैठे है, जब दीपक उतरता है तो वह फूल को पहचान नहीं पाता और फूल की बजाय साथ बैठी दूसरी दुल्हन को अपने साथ जाता है, गाँव में पहुंचने पर जब रीती रिवाज़ हो रहे होते हैं तब जाकर यह पता चलता है या फूल नहीं पुष्पा है, फिर सारी कहानी फूल को ढूढ़ने के इर्द गिर्द है |    

नैरेटिव: लापता लेडीज़ का सारा परिवेश ग्रामीण है, गांवों में घटने वाले सारी समस्यायों के इर्द गिर्द इसको बना गया है| छोटे स्टेशनों पर ट्रेन के न रुकने की समस्या, जनरल कोच में भीड़ होना, घूंघट प्रथा, दहेज प्रथा, पारिवारिक उत्पीड़न, ग्रामीण साक्षरता, सामाजिक रूढ़ियाँ (पति का नाम न लेना ), पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण महिलाओं की प्रतिभा का न हो पाना, उच्च शिक्षा में महिलाओं की उपस्थिति, किसानों पर कर्ज़ की समस्या, जैविक खेती को प्रोत्साहन, सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता, राजनीति में व्यक्ति का उपयोग, अनाथों की समस्या, दिव्यांगों के नाम पर उगाही करने की और महिलाओं की स्वालंबिता का प्रश्न भी सम्मिलित है|

इस फिल्म में इतनी सारी सामजिक समस्यायों से लड़ने, समझने और जूझने की कहानी है| कहानी में कुछ समस्यायों को परिवार नामक संस्था के भी दिखाया गया है और घूंघट को इस कहानी का आधार बनाया गया है, कहानी में कथन है | शादी के बाद पति को उसके जूतों से पहचानना सीखना चाहिए| आखिर यह समस्या केवल एक धर्म में नहीं है, दूसरे धरम के ऊपर भी मात्र 30 सेकंड के लिए यह दिखा दिया गया कि उनमें में इस प्रकार की समस्या है, परन्तु वहां ये समस्या केवल इतनी छोटी है, फिल्म में इसको भी थोड़ी जगह दी जा सकती थी |

निर्देशन: 13 साल बाद निर्देशन के क्षेत्र में लौटी किरण राव ने लापता लेडीज़ के माध्यम से बॉलीवुड में एक निर्देशक के नाते स्थापित होने की तरफ एक पुरजोर कदम बढ़ाया है | किरण राव के इस कहानी में अपनी नज़र को परे रखते हुए किरदारों को मुक्त किया है और इसी कारण पूरी कहानी का प्रवाह फूल और पुष्पा की दृष्टि है |

इस कहानी के मुख्य पात्र वही दो दुल्हन है जो की लापता हुई हैं, एक और जहां पुष्पा पढ़ी लिखी, संघर्षशील, तर्क का आश्रय लेने वाली, पति का नाम लेने वाली है वहीं फूल अनपढ़, पति का नाम हाथ की मेहँदी से बताने वाली, पति ने पुलिस के पास न जाने की बात को आज्ञा की तरह मानने वाली है | पुष्पा और फूल दोनों ही इस कहानी जान है हालांकि दीपक का पात्र प्रमुख रूप से सक्रिय है परन्तु प्रभावी नहीं है |

पटकथा और संवाद : लापता लेडीज़ की पटकथा को बहुत रिसर्च के साथ लिखा गए है, एक किरदार दूसरे किरदार के साथ अलग कर नहीं देखा जा सकता है, न ही एक घटना को दूसरी घटना से | दृश्यों के चयन अतिरिक्त, उनका क्रम भी बिलकुल ठीक रखा गया है | इसकी पटकथा के सफल होने में सबसे बड़ी भूमिका इसके किरदारों की है |

संवाद किसी भी रचना के प्राण होते है, इस कहानी के संवादों के कारण ही पूरी फिल्म में कहीं भी बोरियत महसूस नहीं होती है, न ही कहानी धीमा करते है, संवाद एकदम छोटे, चुस्त और गतिशील है | लापता लेडीज़ प्राण इसके वन लाइनर्स है, जो कि कहानी को मज़ेदार बनाते हुए आगे बढ़ाते हैं |

पात्र: लापता लेडीज़ की जान ही इसके पात्र है चाहे वह मंजू माई की दूकान पर काम करने वाला छोटू या थाने के दुबे जी सभी सहायक पात्रों ने अपना काम बेहतरीन किया है, फिर भी कुछ किरदार है जो आपके मन पर छाप छोड़ जायेंगे:

श्याम मनोहर (रवि किशन): यूं तो रवि किशन ने कई अभिनय में अपना लोहा मनवाया है पर इस बार श्याम मनोहर के किरदार में आपका दिल छू जायेंगे | शुरू में एक भ्रष्ट और घूसखोर पोलिसवाले लगते है, उसका ध्यान केस होकर, पैसा कहां से मिलेगा इस ताक पर है और अंतत: श्याम मनोहर दरियादिल व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं और कब आपके दिल में घर कर जायेंगे आपको पता नहीं लगेगा|

जया (प्रतिभा रनता ): पढ़ी लिखी , संघर्षशील, तर्क का आश्रय लेने वाली, पति का नाम लेने वाली, आगे बढ़ने इच्छा रखने वाली लड़की के किरदार को प्रतिभा रनता बड़ी ख़ूबसूरती के साथ निभाया है, भले ही जया दीपक के घर है परन्तु वह इस घर में रम गयी है, दीपक की मां और भाभी के अंदर उन की पसंदीदा बातों के प्रति रूचि जगाई है |

फूल (नीतांशी गोयल): फूल का किरदार मासूमियत से भरा हुआ है, नीतांशी ने उसे बड़े कोमल भावों से सजाया है। फूल की निरक्षरता उसके लिए एक बड़ी समस्या जरूर है परन्तु जीविकोपार्जन के लिए नहीं है उसकी पाक कला निपुणता के कारण मंजू माई की दुकान की बिक्री बढ़वाई है, नितांशी ने फूल के किरदार की विश्वसनीयता को अदायगी के साथ संवारा है |

दीपक कुमार (स्पर्श श्रीवास्तव): एक पति के रूप में अपनी पत्नी को न पहचानने के कारन जिस दर्द को स्पर्श ने दीपक के किरदार के माध्यम से जिया है वह उल्लेखनीय है, समाज और दोस्तों से मिलने वाली उपेक्षा के कारण गुस्सा, झुंझुलाहट और गम को परदे पर निभाया है |

मंजू माई (छाया कदम): छोटे किरदार होने के बावजूद, छाया कदम ने मंजू माई के किरदार को जीवनद और दिलचस्प बनाया है मंजू माई, जिसने खुद को एक शराबी पति और एक परजीवी बेटे से छुटकारा पा लिया है और उसे इसके बारे में कोई शिकायत नहीं है, फूल को अपने पंखों के नीचे ले लेती है और विवाह जो जीवन का केंद्र बनने को कहती है न कि उसको जीवन बनने का|

छायांकन (सिनेमैटोग्राफी): विकाश नौलखा ने सिनेमैटोग्राफी माध्यम से पूरी फिल्म को रोमांचित बनाया है, ग्रामीण परिवेश का एकदम स्पष्ट स्वरूप जो सामने आया है उसमे छायांकन ने अपना एक महत्वपूर्ण किरदार दिया है |

संगीत: रामसंपत के संगीत ने पूरी फिल्म में रोमांच और गति प्रदान की है, जब गाने आते है तो कहानी को आगे बढ़ाते है न कि कहानी को रोकें | स्वानंद किरकिरे, प्रशांत पांडेय और दयानिधि शर्मा के बोल, राम सम्पत का संगीत और श्रेया घोषाल, सोना महापात्रा, अरिजीत सिंह और सुखविंदर सिंह के स्वरों से सजा इस गानों ने फिल्म को मनोरंजक बनाया है |

समीक्षा: लापता लेडीज़ निश्चित तौर भारत के ग्रामीण परिवेश को व्यक्त करती है, हो सकता है जैसा आनंद गोदान की समाप्ति के बाद मिलता है वैसा इसकी समाप्ति के बाद भी मिले | फिल्म में एडिटिंग के स्टार पर थोड़ा काम और हो सकता था | फिल्म का पहला हिस्सा थोड़ा सा है हालांकि जैसे ही फिल्म का उद्देश्य समझ आता है तब मनोरजन का स्टार बढ़ जाता है | अंत में यही कि फिल्म को देखने जाना चाहिए |

~ समीक्षक : राजदीप ( शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय )

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