(मेरा मूल लेख गुजराती में था, यह इसका हिंदी अनुवाद है. चिक्तिसा शास्त्र से तालुक न रखने वाले वाचकों की जानकारी हेतु- ‘हेरिसन मेडिसिन’ चिकत्सा-शाश्त्र की एक विश्व-विख्यात पाठ्यपुस्तक है, जिसको ‘चिकत्सा-शास्त्र की बाइबल’ की उपाधि भी प्राप्त है.)
कल्पना कीजिए, ‘चिकित्सकों की बाइबल’, ‘हेरिसन मेडिसिन’, बजाय बाइबल के, महाभारत हो गई है, अर्थात, आप उसे हिंदी में पढ़ पा रहे हैं (मूल मुद्दे से थोडा सा भटकते हुए, किसी विषय के बारे में समस्त जानकारी के भंडार माने जाने वाले आधारभूत ग्रन्थ को ‘बाइबल’ कहने का चलन तो आजकल का होगा, पर अपने यहाँ तो महाभारत के लिए सहस्त्राब्दियों से कहा जाता रहा है ‘यदिहस्ती तदन्यत्र, यंनेहस्ती न तत क्वचित’ अर्थात, ‘जो यहाँ है, वह कहीं और हो सकता है, पर जो यहाँ नहीं है, कहीं नहीं है’)…. आप मन-ही-मन मुस्कुराते हुए सोच रहे होंगे, की क्या यह लेखक भी शेखचिल्ली के सपने दिखा रहा है. स्वाभाविक है. पर एक बार निम्नलिखित तथ्यों पर गौर कीजिए (जानकारी का स्त्रोत विकिपीडिया है, परीक्षाओं के चलते अन्य स्त्रोत न जाँच पाया):
समस्त विश्व में हिंदीभाषियों की संख्या है करीब ७० करोड़, जबकि मेसिडोनियन बोलने वालों की संख्या महज २० लाख, क्रोएशियन बोलने वालों की संख्या सिर्फ ६० लाख, एल्बेनियन बोलने वालों की संख्या महज ७० लाख और सर्बियन बोलने वाले केवल ८० लाख हैं. आप को लग रहा होगा कि क्या यह लेखक भी ऐसी-ऐसी भाषाओँ के बोलने वालों की संख्या गिनवा रहा है जिनका ज़्यादातर लोगों ने नाम भी नहीं सुना. धैर्य रखिए और ध्यान से नीचे दी गई तस्वीर को देखिए:
यह तस्वीर है ‘हेरिसन मेडिसिन’ के शुरुआती पृष्ठों की और यह स्पष्ट बतला रही है, कि ऊपर गिनवाए गए छोटे-छोटे देशों की भाषाओँ में इस विश्व-विख्यात पुस्तक की आवृत्तियाँ हैं, पर इतने बड़े भारत कि एक भी भाषा में नहीं. लगा न झटका?
इस विरोधाभास का कारण क्या है? क्या हमारी भाषाएँ इतनी कमज़ोर हैं कि नए युग के ज्ञान को प्रकट कर पाने में असक्षम हों? ऐसा तो नहीं लगता, क्योंकि हमारी ज़्यादातर भाषाओँ का उद्भव हुआ है संस्कृत से और संस्कृत के अत्यंत वैज्ञानिक ‘पाणीनीय व्याकरण’ तथा हजारों धातुओं, उपसर्गों, प्रत्ययों, समासों और संधियों के भंडार को इन भाषाओँ ने धरोहर के रूप में पाया है. इसलिए किसी भी नए विचार को प्रकट करने हेतु कुछ नए शब्दों की रचना हमारी भाषाओँ में सहजता से हो सकती है. दूसरी वजह हो सकती है कि हमारे पास ऐसे विद्वान् ही न हों, जो आधुनिक ज्ञान को हमारी भाषाओँ में लिख सकें. यह वजह भी खोखली तब सिद्ध होती है, जब हेरिसन या उस जैसी विश्व-विख्यात पाठ्यपुस्तकों की लेखक सूची को हम भारतीय मूल के लेखकों से भरी पाते हैं.
तो क्या कारण है इस विरोधाभास का? ‘माँग आर आपूर्ति’. नहीं समझे? आइए एक छोटा सा प्रयोग बताता हूँ- अगली बार जब किसी प्रसंग पर चचेरे-मौसेरे भाई-बहनों से मिलना हो, तो उन सब से पूछिएगा कि पाठ्यक्रम की आवश्यकता के अलावा क्या उन्होंने कभी किसी भारतीय भाषा में वाँचन या लेखन किया है? आपको अपना जवाब मिल जाएगा. हमारी संस्कृति और भाषाओँ ने हज़ार वर्ष की गुलामी के दरम्यान तो अपना अस्तित्व बचाए रखा, पर आज महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ और वैश्वीकरण का युग उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहा है. घरों में माता-पिता मातृभाषा के बजाय बच्चों से अंग्रेज़ी में वार्तालाप कर रहे हैं और कुछ श्रेष्ठ माने जाने वाले विद्यालयों में तो परिस्थिति इस हद तक बिगड़ चुकी है, कि अंग्रेजी के अलावा कोई भी भाषा बोलने पर विद्यार्थी को दण्डित किया जाने लगा है. ऐसी विषम परिस्थिति में तो बच्चे का मातृभाषा पढ़ना-लिखना शीख पाना ही कठिन है, उन भाषाओँ में उच्च शिक्षण प्राप्त करने योग्य होना तो दूर की बात है. एक विषचक्र हमारी भाषाओँ को घेरे खड़ा है- इस मान्यता में कि केवल अंग्रेज़ी ही ज़िन्दगी बना सकती है, माता-पिता और विद्यालय केवल अंग्रेजी पर ज़ोर देते हैं और क्योंकि कोई भारतीय भाषाओँ में शिक्षण प्राप्त करने को तैयार है ही नहीं, किसी को भारतीय भाषाओँ में विद्यालय चलाने में या पाठ्यक्रम विकसित करने में रस ही नहीं है.
तो इस चक्रव्यूह को तोड़कर हमारी भाषाओँ को बचाने का विकल्प है? बिल्कुल है, पर इसके लिए नीचे से लेकर ऊपर तक परिवर्तन करने की आवश्यकता है. माँग-आपूर्ति के बाजारू ज़माने से दूर भागकर नहीं, उसका सामना करके और उसे अपने पक्ष में लाकर. कुछ इस प्रकार-
- प्राथमिक शिक्षा में केवल हिंदी, राज्य की भाषा और बालक की मातृभाषा शिखाई जाए. हिंदी और राज्य की भाषा बालक विद्यालय में सीखे और मातृभाषा गृहकार्य के माध्यम से घर पर, जिस से माता-पिता बालक से मातृभाषा में संवाद करने पर विवश हों. मातृभाषा की परीक्षा विद्यालय में ली जाए, जिस से बालक घर पर सीख रहा है या नहीं, इस पर नज़र रखी जा सके.
- माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी (या अन्य विदेशी भाषा) शिखाई जाए, पर महज एक भाषा के रूप में. अन्य विषयों (गणित, विज्ञान, समाजशाश्त्र आदि) के लिए हिंदी या राज्य की भाषा में से चयन करने का विकल्प दिया जाए. संस्कृत भी शिखाई जाए.
- विभिन्न उच्च-शिक्षण संस्थाओं की प्रवेश परीक्षाएँ केवल भारतीय भाषाओँ में ली जाएं.
- राज्यों और केंद्र के समन्वय से ‘वस्तु व सेवा कर समिति’ (जी.एस.टी. कौंसिल) की तर्ज पर एक ‘शिक्षा व पाठ्यक्रम समन्वय समिति’ का गठन किया जाए. यह समिति प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक पाठ्यक्रम को विभिन्न भारतीय भाषाओँ में उपलब्ध कराए और पाठ्यक्रम के मध्य में भारतीय संस्कृति को रखें.
- गैर-हिन्दी भाषी राज्यों को विश्वास दिलाया जाए कि उनकी भाषाओँ का महत्व घटेगा नहीं, बढेगा. केवल अंग्रेजी को दरकिनार कर के देश को जोड़ने वाली भाषा के तौर पर हिंदी का प्रयोग किया जाएगा. पर राज्य स्तर पर हिंदी और राज्य की अपनी भाषा का समान महत्व होगा.
- अंग्रेजो की धरोहर, प्रशाशनिक सेवा (आई.ए.एस.), पुलिस सेवा (आई.पी.एस.) आदि को बरखास्त कर दिया जाए और एक नई नौकरशाही की नियुक्ति की जाए जिसके चयन में भारतीय भाषा और संस्कृति की समझ को केंद्र में रखा जाए. नेता आते और जाते है, पर देश को असली तौर पर चलाती है नौकरशाही. और जब तक यह नौकरशाही अंग्रेजों के साये से मुक्त नहीं होती, देश का मानस पूर्णरूप से स्वतन्त्र नहीं हो पाएगा.
- पश्चिम का अंधा अनुकरण करने के बजाय स्वदेशी, मौलिक सर्जन पर ज़ोर दिया जाए. चीन में ‘व्होट्सेप’ नहीं चलता पर वहाँ के लोगों को दिक्कत नहीं क्योंकि उन्होंने अपनी भाषा में, अपने अनुरूप ‘वी चेट’ को अपना लिया है. वैसा ही ‘अलीबाबा’ का उदाहरण भी है.
- कम्प्यूटर, मोबाइल, आई.टी. एवं कृत्रिम बुद्धि (ए.आई.) के क्षेत्रों में भारतीय भाषाओँ में संशोधन को वेग दिया जाए.
- संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी को मान्यता दिलवाने की मुहीम युद्ध-स्तर पर चलाई जाए.
- समस्त विश्व में फैले भारतीय मूल के लोगों से संपर्क स्थापित कर, विश्व में जगह-जगह भारतीय भाषाओं में सम्मेलनों का आयोजन किया जाए.
यदि हम इस ‘दस-सूत्री कार्यक्रम’ का पालन करने में सफल हुए तो वह दिन दूर नहीं, जब न केवल ‘हेरिसन मेडिसिन’ की आवृत्तियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओँ में उपलब्ध होंगी, पर भारतीय भाषा में रचित एक स्वदेशी पाठ्यपुस्तक उस से भी श्रेष्ठ साबित होकर सच्चे अर्थ में ‘चिक्तिसा शाश्त्र की महाभारत’ की उपाधि प्राप्त करेगी……
‘विज्ञान की शिक्षा भारतीय भाषाओँ में प्रदान करने से विद्यार्थी की विषय की समझ बेहतर होगी और रचनात्मकता खिलेगी’
-पूर्व राष्ट्रपति और महान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम