हालांकि, यह शीर्षक मैंने स्वयं ही चुना है, पंडित दीनदयाल जी ने 26 वर्ष कि आयु में एक पत्र अपने मामा को लिखा था, और दूसरे अपने मामा के बेटे यानि भाई बनवारी के नाम l यह दोनों पत्र तो व्यक्तियो को ही सूचित थे, लेकिन इनमें जीवन्तता कि सुगंध और किरण मुझे मिलती है l जो व्यक्ति के ध्येय, और उस एक लक्ष्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण को दिशा देते हैं, जिससे जीवन कि इन डगमग पंगडाँदियो में व्यक्ति अडिग रहता है l
सनातन हिन्दू धर्म एक यात्रा है, जो व्यक्ति को उसके सत्य कि ओर ले जाता है l समष्टि और व्यष्टि का मेल करा देती है l हमारे ऋषियो और हुतात्माओ ने इसे हमे सौंपा है l जब प्रचारक जीवन जी रहे पंडित जी के मामा पत्र लिख कर उनसे नौकरी करने को कहते हैं l तब पंडित जी ने उन्हें उत्तर देते हुए लिखा –
” विचारों और कर्तव्यो का तुमुल युध्द चल रहा है l एक ओर तो भावना और मोह खींचते है तो दूसरी ओर प्राचीन ऋषियो, हुतात्माओ और पुरखो की अतृप्त आत्माए पुकारती हैं l “
अपने लिए तो कोई भी यात्रा कर लेगा, लेकिन जो यात्रा भी दूसरो के लिए करे वही महात्मा है, पंडित है, दीनदयाल उपाध्याय है l
पंडित जी ने इसी पत्र में आगे लिखा है
” परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार से समर्थ बनाया है , क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते हैं ? “
वह आगे और लिखते हैं –
” जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने वनवास सहा, कृष्ण ने अनेक कष्ट उठाए, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्वार्पण कर दिया, गुरु गोविंद सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले कि दीवारो में चुने गए, क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षा का, झूठी आकांक्षा त्याग भी नहीं कर सकते हैं? “
आज जब राष्ट्र जग चुका है, और स्वयं के लिए एक बेहतर और सुन्दर भविष्य निर्माण करने के लिए उत्सुक है l वहीं हमें भी यह याद रहना चाहिए कि, हमारे वर्तमान पर अनेक लोगों के जीवन का अतीत रूपी ऋण है l जिसे हमें अपना वर्तमान भविष्य कि पीढ़ीयो का उज्जवल जीवन स्थापित करने के लिए
स्वाहा करना होगा l
और ऐसे ही तो धर्म, कर्तव्य और कृतज्ञता के दीप से दीप जलते हैं l ऐसे ही तो सृष्टि का संचालन होता है l जैसे फूल जब मरता है तो सुगंध हवा को देता है और अपना बीज धरती को जिससे नए पौधे और पुष्प जन्म लेते है l यही सनातन यात्रा है, और इस अखिल ब्रह्मन्ड का जीवन के नाम पत्र है, जो इसकी हर लीला से हमें प्राप्त होता है l
ऋग्वेद में मंत्र दृष्टा ऋषि ने कहा है –
स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव
हम कल्याण कारी मार्ग पर चले, और अपने साथ कल्याण और मंगल लिए हुए चले यानि जहाँ-जहाँ चले वहां मंगल हो, कल्याण हो, और कैसे चले ? जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्रमा चलते है l
ॐ