भारत में लोकतन्त्र पहचान के हिसाब से मौसम की तरह बदलता रहता है l यदि आप हिन्दू है तो मौसम का मिजाज आप के लिए रूखा रहेगा और गैर-हिन्दू होने पर हरा-भरा । अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में इसलिए नहीं है की किसी विशेष वर्ग को बोलने नहीं दिया जा रहा, बल्कि इसलिए अभिव्यक्ति खतरे में है क्योंकि अब वो बोल रहें है जिन्हें बोलने से सालों तक वंचित रखा गया है l राजनीति अस्थिर दिखाई जा रही है , अर्थव्यवस्था चरमराती बताई जा रही है , समाज को विखंडित बताया जा रहा है, इसलिए नहीं की वो है बल्कि इसलिए क्यों कि वो लोग समाज और राज्य को प्रभावित और संचालित करने वाली
व्यवस्था और संस्थान से बाहर जा रहें जो उनको अपनी बपौती समझते थे l वर्तमान भारतीय राजनीतिक विमर्श में एक शब्द प्रचलित है " identity politics " जिसका सीधा-सीधा अर्थ किसी विशेष पहचान के प्रति राजनीतिक विचार, दृष्टिकोण होने से है जो उस विशेष पहचान को राजनीतिक , सामाजिक , आर्थिक लाभ दे सके l अमेरिका में 1970 के समय यह शब्द प्रचलन में आना शुरू हुआ, जिसका मकसद उन पीड़ित सामाजिक समूहों ( oppressed social groups ) को आवाज़ देना था, जो प्रताड़िता हुए हैं । भारत में यह शब्द एक अलग परिप्रेक्ष्य में प्रचलित है, जिसमें कुछ सामाजिक समूह पहचान लिए गए हैं, जिनके लिए राजनीति करनी है l और आज भारत में यह शब्द अराजकता का आधार बन चुका है l विपक्ष को पीड़ित वही दिखता है जहां वह अपनी vote-bank-politics कर सकता है ।
पिछले चार साल केवल विपक्ष के यही वाक्य सुनने में चले गए कि “सत्ता में फासीवादी बैठें हैं ” , “समाज को तोड़ा जा रहा है” , “identity politics देश के सौहार्द को समाप्त कर रही है” – लेकिन ये कर कौन रहा है ? गुजरात में पटेल आंदोलन को किसका समर्थन था ? हार्दिक और मेवानी जो क्रमश लोगों को एक दूसरे के प्रति भड़का रहे थे उन्हें किसने नेता कहा ? किसने कहा कि कांग्रेस " मुसलमानों कि पार्टी है ? किसने कहा था कर्नाटक के मुसलमानों बी.जे.पी के खिलाफ एक हो जाओ ? क्या यह IDENTITY POLITICS नहीं हैं ? Identity Politics इस देश के मूल निवासी को जाति, वर्ग, पंथ में बांटने का कार्य करती है । Identity politics केवल हिन्दू के ऊपर थोपी जाती है, किसी और पर नहीं l जाति का फर्क अखबार और टीवी में दिखाया जाता है, स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है लेकिन सिया और सुन्नी का नहीं, और न ही प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक का जब की भारत में यह तीनों निवास करते हैं l
अगर हम मुस्लिम और ईसाई हक कि बात करें तो पंथनिरपेक्ष और यदि हिन्दू हक कि बात करें तो सांप्रदायिक । राष्ट्र और संस्कृति कि आलोचना करें तो हम उदारवादी यदि पक्ष ले तो फासीवादी और चरमपंथी l भारत में चल रही IDENTITY POLITICS का यही AGENDA है l जिसमें हम सब पहचान लिए गए हैं या फिर पहचान लिए जाते हैं । और हमारा नामकरण हो जाता है ।