— Written By नटबर राय
कश्मीर में होने वाली हिंसा के नाम पर शाह फैज़ल का प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर राजनीती में आने का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है। वह शाह फैज़ल, जिसके आई.ए.एस. की परीक्षा टॉप करने पर देशवासियों ने सर आँखों पर बिठाया था और आशा की थी कि यह कश्मीर के युवाओं को आतंकवाद से हटाकर राष्ट्र की मुख्य धारा में जोड़ेगा, हतोत्साहित करने वाला साबित हुआ।
सब को उम्मीद थी की यह युवक कुछ नया करेगा। पर सभी को केवल निराशा हाथ लगी। आज के दौर में पारंपरिक राजनीति को चमकाने या राजनीति में आने का संकेत करने के लिए हिंदू-मुस्लिम व कश्मीर राग अलापना आम बात हो गई है, जिस परंपरा को फैज़ल ने कायम रखा। इससे तो यही लगता है कि वह जितना भी हार्वर्ड केनेडी स्कूल (एच.के.एस.) जाकर मन बदलने की बात करें, मगर भारत की जनता सब जानती है कि यह सोच कहीं और से नहीं आयी है, बल्कि यह वही सोच है जिसको लेकर पी.डी.पी. और नेशनल कांफ्रेंस जैसी पार्टियां वैली में अपनी राजनीति और हुर्रियत अपना हुक्का पानी चलाती हैं।
उसे बुरहान के साथ फोटो की खबर ने बिफरा दिया था, परंतु उसी बुरहान प्रेम को फैज़ल ने फिर से जगजाहिर कर दिया। कहते हैं न, ”सच को जितना छुपाओ, जुबां पर आ ही जाता है” वही हुआ है। उसका कहना है कि हार्वर्ड जाकर उसे यह एहसास हो गया कि वह यहां कुछ महत्वपूर्ण चीजों के बारे में गलत था और अज्ञानता का पर्दा उतारा। उस कश्मीर में मरे तो हिंदू भी थे, कश्मीरियों को सुरक्षा देने वाले जवान भी हिन्दू ही हैं। यह सत्य है कि कुछ सालों में सुरक्षा बलों के द्वारा पाकिस्तान परस्त आतंकवादी मारे गए हैं, पर इसलिए नहीं किमारे गए पाकिस्तान परस्त एक धर्म विशेष से आते थे। कैसे वह एच॰के॰एस॰ से सोच बदलने की बात कर सकते है? ऐसा करके फैज़ल उस संस्थान तथा आपको अपना आदर्श मानने वाले युवाओं का अपमान कर रहा है।
जब आतंक का कोई धर्म नहीं होता तो क्यों वह इसे इस्लाम से जोड़ रहा है, क्या उसे एच.के.एस. में यही सीखने को मिला? अच्छा होता यदि फैज़ल ने कभी कश्मीर में रह रहे दलित परिवारों के बारे में कहा होता, जिन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर सरकार में नौकरी तो दूर, वहां वोट डालने का अधिकार तक नहीं दिया गया। क्या वह सिर्फ मैला ढोने के लिए हैं? फैज़ल को तो सर्व धर्म अपना आदर्श मानता था, फिर यह धर्म विशेष के पक्ष लेने से क्या मतलब निकाला जाए। बलोचिस्तान कश्मीर से बहुत पास है, क्या फैज़ल ने वहां के निवासियों के लिए बोलना अच्छा नहीं समझा? जिससे पाकिस्तान को वैश्विक पटल पर आईना दिखाया जाता, आपको वह आइना नहीं दिखा?
फैज़ल जैसे बुद्धिजीवी ऐसा बोलेंगे तो प्रश्न उठेंगे कि यह मदरसे वाली सोच कहां से आई? कहीं ऐसा तो नहीं हो एच.के.एस. में पढ़ने वाले राष्ट्राध्यक्षों की जीवनी पढ़कर आपको भी राष्ट्र अध्यक्ष बनने का ख्वाब आ गया? ख्वाब देखना अच्छी बात है, पर जब आप जैसे लोग इस तरह की बात करते हैं तो कहीं ना कहीं बुद्धिजीवियों पर प्रश्न खड़ा होता है। भारत में बोलने की आजादी है और यह 9 फरवरी 2016 को जेएनयू में देखने को भी मिला।
परंतु इस सोच से शाह जम्मू कश्मीर का विकास नहीं कर पाएंगे और ना ही सर्व-समाज के नेता बन सकेंगे। इस के लिए गांधी जी जैसे राष्ट्र समर्पित नेताओं की राह पर चलना होगा, फिर भी उन्हें नई पारी की शुभकामनाएं। याद रखियेगा! इस पिच पर गेंद और बल्ला दोनो जनता के हाथ होता है, वो जब चाहे मैदान के बाहर फेंक दें।
शाह फैज़ल कायर है,उसने असली मैदान छोड़ दिया