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सुभद्रा कुमारी चौहान

“सिंहासन  हिल  उठे,  राजविंशों  ने  भृकुटि  तानी  थी,
बूढ़े  भारत  में  आयी  फिर  से  नई  जवानी  थी,
गुमी  हुई  आज़ादी  की  कीमत  सब  ने  पहचानी  थी,
दूर  फिरिंगी  को  करने  की  सब  ने  मन  में  ठानी  थी,
चमक  उठी  सन  सत्तावन  की  वह  तलवार  पुरानी  थी,
बुिंदेले  हरबोलों  के  मुख  हमने  सुनी  कहानी  थी,
खूब  लड़ीमर्दानी  वह  तो  झािंसी  वाली  रानी  थी।”

इस एक कविता ने जिसे अमर कर दिया, उस कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने केवल वीररोचित गीत ही नहीं लिखे, स्वतंत्रता संग्राम में स्वयं भी भाग लिया। पति  पत्नी दोनों के देश कार्य में व्यस्थ रहने तथा समय-समय पर जेल जाने के कारण, उन्होंने अपार आर्थिक-पारिवारिक कष्ट भी सहे। सन 1905 में सुभद्रा का जन्म प्रयाग में हुआ। ये माता पिता की 7वीं  सिंतान थीं । चंचल और तेजस्वी स्वभाव गुण-कर्म वाली। बचपन से ही नौकरों और गरीबों की हमदर्द । 14वर्ष की आयु में खंडवा निवासी श्री लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ शादी हुई। रूढ़ी विद्रोही स्वभाव के कारण ससुराल में पर्दा नहीं किया तो काफ़ी आलोचनाए सहनी पड़ी। उनके पिता भी इसी स्वभाव के थे तो भला उन्हें किस  बात का डर था। पति-पत्नी दोनों अपनी अधूरी पढ़ाई को पूरी करने में जुट गए थे। 1919 का जलियांवाला कांड  घट गया। लक्ष्मण सिंह अपनी पढ़ाई छोड़ के 1920-1921 के असहयोग आिंदोलन में कूद पड़े। सुभद्रा भी उन्हीं 9वीं की पढाई छोड़ कर कविताएं लिखने लगी। ‘राखी की लाज ‘ और ‘जालियां वाला बाघ में वसंत‘ उन्ही दिनों की कविता है। सुभद्रा का कार्य क्षेत्र जबलपुर हो गया। वही तिलक राष्ट्रीय विध्द्यालय का कार्य, स्त्रियों में जाग्रति व राष्रीय चेतना जगाने का कार्य , स्वयंसेवकों को संगठित करने का कार्य शुरू कर दिया । लक्ष्मण सिंह भी उसी विध्द्यालय में हेडमास्टर बन गए। सुभद्रा सत्याग्रह में भाग लेने पर जबलपुर में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला थी।

1932 में सुभद्रा की मुलाकात गािंधी जी से हुई। 1936 के चुनाव में सरदार पटेल की सिफारिश पर जबलपुर की सुरक्षित महिला सीट के लिए उनका नामांकन हुआ और जीत गयी। त्रिपुरा कांग्रेस के समय पेट में तीसरे गर्भ के साथ ट्यूमर के कारण वहीं काफी बीमार थी फिर भी अधिवेशन में भाग लिया । 1942 के भारत छोड़ो आिंदोलन के समय लक्ष्मण सिंह सुभद्रा के गहने बेचकर खेती कर रहे थे। घर में राशन भरकर वह जेल जाने की तैयारी करने लगी, पर सहायक महिलाओं ने साथ नहीं दिया। 125 रु. अपनी बेटी के हाथ में देकर उसे रामानुज श्रीवास्तव के संरक्षण में छोड़ जेल चली गयीं । पेट में ट्यूमर बढ़ जाने के कारण उन्हें 1943 में रिहा कर दिया गया। फिर वही गरीबी, बीमारी और अभिशाप! मुनि प्रेमचन्द के बेटे अमतृ राय ने बिना दहेज के उनकी बेटी सुधा से विवाह किया। पिता भी जेल से पैरोल पर आये और आशीर्वाद दे कर लौट गए। 15 फ़रवरी  को मोटर दुर्घटना में सुभद्रा जी का देहावसान हो गया। उनकी दाह क्रिया के समय शमशान में घाट पर भी उसी स्वर में कविता पढ़ी गयी। “मिला तेज़ से तेज़, तेज़ की वह सच्ची अधिकारी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थीं ।

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