Breaking News

मै जनरल डायर की बन्दूक

ब्रिटिश राज के घोर युग में,
युनियन जैक के परचम तले,
मै रेगिनाल्ड की सर्विस पिस्टल बनी,
मै जनरल डायर की बंदूक।

मै साथी थी उसकी,
करीब 35 वर्षों तक,
जान गई थी रग-रग उसकी,
सर से पैर तक।

एक दिन खबर मिली,
या यों कि वैशाखी के दिन,
पता किसे था यही बनेगा,
कयामत-ए-जलियाँवाला का दिन।

हुकुम था उसका बैसाखी पर,
कोई न घर से निकला हो,
जलियाँवाला बाग जो पहुँचे,
कोई न उनमें ज़िंदा हो।

छोटा सा बाग था,
रामलीला मैदान नही,
लोगों का त्यौहार ही था,
सेना की कोई भर्ती नही।

झूले ही थे, फसलें ही थी,
अमन ही था, हथियार थोड़ी थे,
बच्चे ही थे, थे ही बुज़ुर्ग,
औरतें ही तो थी, दानव थोड़ी थे।

वही हुआ जो कभी सोचा न था,
कत्ल-ए-आम का ऑर्डर हुआ,
जनरल की झूठी बुलंद आवाज़ पर,
हज़ारों पर फ़ायर हुआ।

कुआं हुआ खूनी,
ज़मीन लाल हो गई,
दीवारों में छिद गई गोलियाँ,
सरहदें चीखों से गूँज गई।

मुझे फर्क नही पड़ता,
उस वहशी डायर का क्या हुआ,
ऐसे कृत्य करने वाले को,
सज़ा देने का अधिकारी भगवान भी न हुआ।

मगर मै…

बहुत विचार-विनिमय कर के देखा,
सोचा अब जी कर के क्या,
मगर मै अभागन हत्यारी,
मृत्युदंड भी न पा सकी।

मै जनरल डायर की बंदूक,
मै जनरल डायर की बंदूक।

Devanshu Mittal

Devanshu is a Mass Communication student from VIPS, IP University.

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.