–Written By Srishti Sharma (दहर)
दो रोटी के लिए भरी दोपहरी में झुलसते इंसान को देखा है
बंद आँखों में सिमटे किसी के मरते ख्वाब को देखा है
रात को चांदनी का मोल भाव करते देखा है
लगाता हैं कीमत कौड़ियों की
चाँद को दाग़ पर ग़ुमान करते देखा है
बिकते जिस्म हैं रेशमो में लिपटे
मैंने तवाएफ़ की आँखों में आज़ाब को देखा है
मैंने हर ढलती शाम में सूरज का उजाला देखा है
हर गहराती रात में जुगनुओं का तमाशा देखा है
मैंने हसरतों को बेलिबास बेहताशा देखा है
मुर्दों के शहर में आदमी का उठता जनाज़ा देखा है
मैंने बिस्तर की सिलवटों पर ख्वाहिशों का दम घुटते देखा है
प्यार की आड़ में हवस का मुँह खुलते देखा है .
मैंने वक़्त को फिसलते देखा है
हर लम्हा तेरे साथ ठहरते देखा है
मैंने खुदको बर्बाद देखा है
तेरा बेरुखी भरा मिजाज़ देखा है
मैंने हर शहर में तेरा नाम देखा है
तुझे सरे आम बदनाम देखा है
मैंने हर शख्स में तेरा अक्स देखा है
तेरी यादों को हर शाम हमरक्स देखा है
क्या नही देखा इन आँखों ने के तेरी मौजूदगी में भी फुरकत का सबब देखा है
दहर….