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मानव जनसंख्या : पर्यावरण पर उसका प्रभाव

–Written By Digvijay Thakur


हमारे आसपास की प्रत्येक वस्तु जड़, चेतन और प्राणी, हमारा रहन-सहन, खान-पान, सभी कुछ पर्यावरण का ही भाग है। विज्ञान के अनुसार कहें तो, चारों ओर की भूमि, जल, वायु और इसके ऊपर नीचे के सभी सजीव और निर्जीव सब पदार्थ मिलाकर बायोस्फीयर अर्थात जीवमंडल माना जाता है। जीवमंडल और मानव के संबंध को पर्यावरण कहा जाता है। जर्मन वैज्ञानिक अर्नेस्ट हैकल ने पर्यावरण की परिभाषा में कहा है की, किसी भी जीव जंतु से समस्त कार्बनिक व अकार्बनिक वातावरण के पारस्परिक को पारिस्थितिकी या पर्यावरण कहेंगे। आज धरती पर तापमान बढ़ता चला जा रहा है। पर्यावरण चक्र गड़बड़ाने के कारण प्रकृति अपना प्रकोप दिखा रही है। चाहे वह विकसित देश हो या विकासशील, सभी यह प्रकोप बरसता देख कर चिंतित हो रहे हैं। मनुष्य ने अपनी असीमित आकांक्षाओं के कारण आपत्तियों को आमंत्रित किया है। मानवीय जीवन शैली विकृत हो चुकी है। साधनों को पाने की होड़ में मनुष्य ने लालच को इतना बड़ा लिया है कि उसका कहीं भी अंत होता नजर नहीं आ रहा है। प्रतिदिन पूरे विश्व में कुल मिलाकर 90000 एकड़ के वृक्षों का दोहन हो रहा है। हमारी सुख-सुविधाओं और आरामदेह जिंदगी के लिए प्रकृति के साथ यह खिलवाड़, पूरी मानव सभ्यता के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी।

मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण का आपस में गहरा रिश्ता है। जहां एक ओर गरीब और कम विकसित देशों में पोषण एवं स्वास्थ्य दशाओं को सुधारने की आवश्यकता है वहीं दूसरी ओर तीव्र गतिशीलता के कारण सिमटी हुई दुनिया में पिछले कुछ शो में इनफ्लुएंजा तथा दूसरी संक्रामक बीमारियों को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में खेलते हुए देखा गया है। हालांकि, भारत में पिछले दो दशक में जनसंख्या वृद्धि की दर में कमी आने से नई आशाओं का संचार हुआ है। लेकिन बड़ी जनसंख्या आधार के दबाव एवं ढांचागत समस्या के कारण आर्थिक विकास का असर बहुसंख्यक लोगों में उभर कर नहीं आ पाता, और गहरी सामाजिक, आर्थिक विषमताओं का निर्माण करता है। भारत में नगरीकरण, स्वास्थ्य दशाओं तथा पर्यावरण एवं जीवन की गुणवत्ता में सुधार की काफी संभावनाएं नजर आ रही हैं।

जब से मानव अस्तित्व में आया है तब से उसकी क्या मैं निरंतर वृद्धि होती रही है। शुरू मैं निश्चित ही जनसंख्या सीमित रही एवं क्षेत्रों में निवास करती रही, किंतु उसका क्रमिक विकास, आज एक ऐसे बिंदु पे आ गया है कि वह अनेक राष्ट्रों के लिए चिंता का विषय बन गयी है। किसी भी प्रदेश की जनसंख्या के विकास की जांच, वहां की जन्म और मृत्यु दर के अंतर से मापी जाती है। यदि जन्म अधिक और मृत्यु दर कम होगी तो जनसंख्या में तीव्र वृद्धि होगी। वही, दोनों में आनुपातिक संबंध रहा तो वृद्धि सामान्य होगी मगर मृत्यु दर अधिक हो जाती है तो जनसंख्या में कमी आ जाएगी। विश्व जनसंख्या की एक अन्य महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है सीमित प्रदेशों में जनसंख्या का जमाव अर्थात जहां भी उपयुक्त पर्यावरण होता है वही जनसंख्या का केंद्रीकरण होने लगता है। वर्ष 2011 में विश्व की कुल जनसंख्या 7,167,705,600 आंकी गई थी। संसार के प्रत्येक राष्ट्र में जनसंख्या के वितरण और घनत्व में बहुत असमानता है। विश्व के सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र आदर्श मानव उपयोगी क्षेत्रों में सीमित हैं। दूसरी ओर न्यून जनसंख्या वाले क्षेत्र जहां वातावरण कठोर है जैसे भूमध्यरेखीय प्रदेश, शीत प्रदेश, शुष्क मरुस्थली प्रदेश एवं उच्च पर्वतीय प्रदेश जनसंख्या आवास के प्रतिकूल है। विश्व की अधिकांश जनसंख्या अमित क्षेत्रों में होने के कारण 600 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के भी अधिक घनत्व में रहते हैं। जबकि दूसरी ओर विश्व का लगभग 45% स्थलीय क्षेत्र ऐसा है जहां एक व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से भी कम जनसंख्या घनत्व में रहता है।

जनसंख्या विश्लेषण से स्पष्ट होता है की जनसंख्या पर्यावरण एवं पारिस्थितिक क्रम को अत्यधिक प्रभावित कर रही है। पारिस्थितिक क्रम को तीन रंगों में विभक्त किया जा सकता है प्राकृतिक वातावरण, जनसंख्या, और तकनीकी विकास।

हमारे देश में अनेकों समस्याएं हैं जो देश के विकास में अवरोध उत्पन्न करती हैं। जनसंख्या वृद्धि देश की इन्हीं जटिल समस्याओं में से एक है। हमारी जनसंख्या वृद्धि के दर का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज़ादी के पांच दशक में ही हम 33 करोड़ से 100 करोड हो गए। देश में जनसंख्या वृद्धि के अनेकों कारण मौजूद हैं सर्वप्रथम यहां की जलवायु प्रजनन के लिए अधिक अनुकूल है, अशिक्षा, निर्धनता, रूढ़िवादिता तथा संकीर्ण विचार। शिक्षा का अभाव जनसंख्या वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। परिवार नियोजन के महत्व को अज्ञानतावश लोग समझ नहीं पाते। इसके अतिरिक्त पुरुष प्रधान समाज की प्रधानता के कारण लोग लड़के की चाह में कई संतान उत्पन्न कर लेते हैं। देश चिकित्सा के क्षेत्र ने अपार सफलताएं पाई हैं जिसके फलस्वरूप जन्म दर की विधि के साथ-साथ मृत्यु दर में कमी आई है। आंकड़े बताते हैं कि जिन राज्यों में शिक्षा स्तर बढ़ा है और निर्धनता घटी है वहां जनसंख्या की वृद्धि दर में ह्रास हुआ है। बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि प्रांतों में जनसंख्या वृद्धि दर सबसे अधिक है क्योंकि इन प्रदेशों में समाज की धीमी तरक्की हुई है।

शहर एवं उद्योगों द्वारा आर्थिक समृद्धि ताकि अपेक्षा की जाती है, परंतु साथ ही भीड़-भाड़ तथा दूषित पेयजल के कारण संक्रामक अतिसार एवं विषाणु जनित क्षय रोग का प्रसार हो रहा है। ज्यादा घनत्व वाले शहर में यातायात के कारण दमा जैसे साँस की बीमारियों का प्रसार हो रहा है। कृषि ने कीटनाशकों के प्रयोग से जहां हरित क्रांति के दौरान उत्पादनो में आशातीत वृद्धि की वही यह खेत में कृषिगत उत्पादनों का उपभोग करने वाले लोगों के स्वास्थ्य को गंभीर करते जा रहे हैं। आर्थिक विषमता, स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती है। निम्न आय वाले देशों में 36% बच्चे तथा मध्यम आय वाले देशों में 12% बच्चे कुपोषण से ग्रस्त पाए जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक विकास के कारण कई दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती है। जहां बेहतर चिकित्सा सुविधाओं के कारण जीवन प्रत्याशा में वृद्धि, महामारियों की रोकथाम तथा शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। वही अनियंत्रित जनसंख्या में वृद्धि हुई है। जिसका पर्यावरण की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। समाज का बेहतर स्वास्थ्य स्तर, बेहतर जीवन दशाओं तथा स्थिर जनसंख्या वृद्धि द्वारा ही संभव है।

आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में कहा गया है कि में पिछले कुछ दशकों वृद्धि की गति धीमी हुई है। वर्ष 1971-81 के मध्य वार्षिक वृद्धि दर जहां 2.5 प्रतिशत थी वह 2011-16 में घटकर 1.3% हो गई है। आर्थिक सर्वेक्षण में जनसांख्यिकीय के ट्रेंड की चर्चा करते हुए यह रेखांकित किया कि बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तथा हरियाणा जैसे राज्य जहां एतिहासिक रूप में जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है। दक्षिण भारत के राज्य तथा पश्चिम बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र उड़ीसा, असम तथा हिमाचल प्रदेश मैं आशिक वृद्धि दर 1% से कम है। सर्वेक्षण के अनुसार आने वाले 2 दशकों में भारत में जनसंख्या वृद्धि दर में तीव्र गिरावट की संभावना है, साथ ही कुछ राज्य वर्ष 2030 वृद्ध समाज की स्थिति की ओर बढ़ने शुरू हो जाएंगे। आर्थिक सर्वेक्षण न सिर्फ जनसंख्या नियंत्रण को लेकर आशावादी रवैया रखता है बल्कि भारत में नीति निर्माण का फोकस भविष्य में बढ़ने वाली वृद्धों की संख्या की ओर करने का सुझाव देता है।

स्वास्थ्य जनसंख्या की संरचना का एक महत्वपूर्ण घटक है जो कि विकास की प्रक्रिया प्रभावित करता है। सरकारी कार्यक्रमों के निरंतर प्रयास के द्वारा भारत की जनसंख्या के स्वास्थ्य स्तर में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है। महत्वपूर्ण सुधार बहुत से कारकों, जैसे- जन स्वास्थ्य, संक्रामक बीमारियों से बचाव एवं रोगों के इलाज में आधुनिक तकनीकों के प्रयोग परिणाम स्वरूप हुए हैं। महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बावजूद भारत के लिए स्वास्थ्य मुख्य चिंता का विषय है। प्रति व्यक्ति कैलोरी की खपत अनुशंसित स्तर से काफी कम है तथा हमारी जनसंख्या का एक बड़ा भाग कुपोषण से प्रभावित है। पीने का पानी तथा मूल स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएं जनसंख्या के केवल एक तिहाई लोगों को उपलब्ध है। इन समस्याओं को एक उचित जनसंख्या नीति के द्वारा हल करने की आवश्यकता है।

जनसंख्या वृद्धि, उपभोग, पर्यावरण क्षरण और स्वास्थ्य के बीच कई महत्वपूर्ण संबंध हैं। पृथ्वी की सतह का अनुमानित 10% हिस्सा यही रेगिस्तान में तब्दील हो चुकी है। विश्व की 25% कृषि भूमि कि उत्पादक क्षमता का क्षरण हो चुका है, जो कि भारत और चीन के कृषि भूमि के बराबर है। अनुज पाठक भूमि और भोजन की कमी ने समान समय में एक अरब से भी ज्यादा लोगों को कुपोषण के साथ जीने पर मजबूर किया है। इससे सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ा है। अफ्रीका, दक्षिण एशिया, और अन्य विकासशील देशों की एक अरब से भी ज्यादा लोगों कि खाद्य सुरक्षा को खतरा है। इन विकासशील देशों में पानी के स्तर में तेजी से गिरावट आई है। हाल के अध्ययनों से संकेत मिला है कि पानी के स्तर गिर जाने से अनाज उत्पादन में भारत में 25% की गिरावट आई है। ऐसे समय में जब देश के आधे से अधिक बच्चे कुपोषित हैं और अगले 50 वर्षों में जनसंख्या में लगभग करोड़ की वृद्धि होने वाली है, भारत जैसे देश के लिए यह चिंता का विषय है। अन्य बड़े देश जहां तीव्र जनसंख्या वृद्धि और प्रति व्यक्ति कृषि भूमि में गिरावट आई है, उनमें पाकिस्तान और नाइजीरिया भी शामिल है। पानी की कमी भी स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं क्योंकि मानव उपयोग के लिए साफ पानी चाहिए होती है। पानी, विषाक्त पदार्थों और रोगजनको से प्रदूषित हो जाती है। वर्तमान समय में लगभग दो करोड़ लोग का उपचार करवाने में सक्षम नहीं है, और 1.3 लोगों को जलजनित बीमारियों का खतरा है, क्योंकि उनके पास शुद्ध पेयजल नही है।

हमारी अर्थव्यवस्थाओं और उद्योगों को सुधारने की तकनीक अपेक्षाकृत कठिन, महंगा और समय लेने वाला है। धीमी गति से जनसंख्या वृद्धि में कमी लाने वाले उपाय अपेक्षाकृत कम खर्चीला हैं। हमारा भविष्य विकासशील देशों में परिवार नियोजन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती पहुंच और विकसित देशों में लोगो के खपत को कम करने पर निर्भर करती है। हमें देशों में औद्योगिक उत्पादन के लिए अधिक कुशल और विकसित प्रौद्योगिकी अपनानी चाहिए। हमारी सरकारों, निजी क्षेत्र और व्यक्तियों सतत आर्थिक व्यवहार के नए प्रति मानव को तैयार करने और अपनाने के लिए, स्वैच्छिक और जिम्मेदार परिवार नियोजन को समर्थन और सक्षम करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए। आने वाले पीढ़ियों के लिए, बिना समझौते जे साथ जीने देने के लिए, वर्तमान आबादी को चुनौती उठानी पड़ेगी।

2009 के एक शोध से पता चला है की जनसंघ और ग्लोबल वार्मिंग के बीच के संबंध को निर्धारित करने के लिए एक बच्चे की ‘कार्बन लीगेसी’ 20 गुना ज्यादा होगी ग्रीन हाउस गैस से, जितना कि एक आदमी अपने हाई माइलेज वाली कार से बचा लेगा। कार्बन लीगेसी की मात्रा कार्बन खपत से ज्यादा है। वर्तमान परिस्थितियों में, संयुक्त राज्य में पैदा हुआ बच्चा चीन में पैदा होने वाले बच्चे के कार्बन उत्सर्जन से लगभग 7 गुना और बांग्लादेश में पैदा हुए बच्चे से लगभग 168 गुना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करेगा। अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के ही द्वारा व्यक्तिगत राष्ट्रों के कार्बन उत्सर्जन के साथ मिलकर सामना कर सकता है। उदाहरण के लिए, चीन ने हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का प्रमुख ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन बन गया है।

लेकिन उन गैसों का एक बड़ा हिस्सा संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में उत्सर्जित होता है। इस प्रकार चीन, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा वास्तव में उच्च खपत वाले पश्चिमी देशों का विस्थापित उत्सर्जन है। वैश्विक स्तर पर हाल के शोध से संकेत मिलता है कि भविष्य के उत्सर्जन परिदृश्य को विकसित करने के लिए जलवायु परिवर्तन पर अंतःसरकारी पैनल द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली प्रजनन दर में गिरावट के बारे में आशावादी धारणा बनी रहेगी। जबकि प्रजनन दर में पिछले कुछ दशकों में आमतौर पर गिरावट आई है, हाल के वर्षों में प्रगति धीमी हो गई है। विशेष रूप से विकासशील देशों में, बड़े पैमाने पर परिवार नियोजन की कटौती और संयुक्त राज्य अमेरिका के राजनीतिक हस्तक्षेप से हुई है, यही प्रजनन दर को प्रतिस्थापन स्तरों से कम कर दिया जाए, लेकिन आबादी का स्तर कुछ समय के लिए तेजी से चढ़ता रहेगा, क्योंकि लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं और अरबों युवा परिपक्व होते हैं और अपने प्रजनन वर्षों के माध्यम से आगे बढ़ते हैं। प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस उत्सर्जन में गिरावट हो सकती है, लेकिन जनसंख्या की वृद्धि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की खतरनाक वृद्धि में योगदान देता रहेगा। हमारे पास समय कम है पर अभी देर नहीं हुई है, हम इसे अभी भी रोक सकते हैं।

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