~ मोनिका रावत
समाचार और हालात देखते ही एक बार फिर से आपदा प्रबंधन, पर्यावरणीय सुरक्षा, बहुमूल्य वनस्पति एवं वन्यजीवों के संरक्षण जैसे बहुत से प्रश्नों पर विचार करने को मन ने विवश कर दिया है। जहाँ एक और दुनिया कोरोना महामारी से जंग लड़ रही है वहीं दूसरी और उत्तराखंड के जंगल और जानवरों पर एक और विपत्ति आ पड़ी है।
उत्तराखंड में 15 फरवरी से शुरू हुए फायर सीजन (अग्निकाल) में इस वर्ष भी प्रकृति को बहुत नुकसान सहना पड़ा।उत्तराखंड में 1 अक्टूबर 2020 से जंगलों में आग की घटनाएं सामने आने लगी थीं। वन विभाग के अनुसार तब से अब तक प्रदेश में आग की कुल 609 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इससे 1263.53 हेक्टेयर जंगल भस्म हो चुका है। 4 लोगों की मौत हो चुकी है। सात पशुओं को भी अपने प्राण गंवाने पड़े।जंगलों की आग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वन कर्मी एक जंगल की आग बुझा रहे हैं तो दूसरा जंगल धधक जा रहा है।
प्रत्येक वर्ष गर्मी का मौसम आते ही देश के पहाड़ी राज्यों, विशेषकर उत्तराखंड के वनों में आग लगने का सिलसिला शुरू हो जाता है। वार्षिक आयोजन जैसी बन चुकी उत्तराखंड के वनों की यह आग प्रत्येक वर्ष विकराल होती जा रही है, जो न केवल जंगल, वन्यजीवन और वनस्पति के लिये नए खतरे उत्पन्न कर रही है, बल्कि समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर अब इसका प्रभाव नज़र आने लगा है। वनाग्नि के कारण केवल वनों को ही नुकसान नहीं पहुँचता है बल्कि उपजाऊ मिट्टी के कटाव में भी तेज़ी आती है, इतना ही नहीं जल संभरण के कार्य में भी बाधा उत्पन्न होती है।
वनाग्नि का बढ़ता संकट वन्यजीवों के अस्तित्व के लिये समस्या उत्पन्न करता है। हरियाली व साफ हवा के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध उत्तराखंड के जंगल आग की घटनाओं से सिकुड़ रहे हैं। आज जब देश कोरोना जैसी महामारी से लड़ रहा है वहीं देवभूमि में लोग और वन्य जीव वनाग्नि में भी झुलस रहें हैं। शायद कुछ ही वक़्त हुआ हो जब हमें सारे सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स पर अमेज़ोन के जंगल और उनमें झुलसे जनवरों की तस्वीरें देखने को मिली। सभी प्रार्थनायें कर रहे थे, मन में एक संतोष का भाव था कि दुनिया में इंसानियत अभी भी बाकी है लेकिन आज जब अपने ही घर में आग है जब अपने ही जीव समाप्ति के कगार पर हैं तो सब मूक क्यों? क्या आज जनवरों के प्रति वो संवेदनशीलता समाप्त हो गयी है? 15 फरवरी से 15 जून तक का समय फायर सीजन माना जाता है क्योंकि इस दौरान फॉरेस्ट फायर की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं। जंगलात हर बार वनाग्नि की घटनाओं को लेकर पूर्व सतर्कता बरतता है। उसके बावजूद घटनाएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही।हमारी जरा सी लापरवाही बहुमूल्य जीव जंतुओं को पल भर में राख कर देती है। इन वनाग्नि के कारण देवदार, सुरई, बाँज जैसी कई प्रजातियों के जंगल जल कर राख हो जाते हैं, जिनकी जगह चीड के जंगल ले लेते हैं, जिसका सीधा असर उस क्षेत्र की जैव विविधता और जल स्रोतों पर पड़ता है। सवाल अब भी वही है कि क्या आज हम ऐसे समाज के भागी बन चुके हैं जहाँ सोशियल मीडिया का इस्तेमाल सिर्फ मनोरंजन मात्र के लिए होता है।
अमेज़ोन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों के जलने का दुःख इतना गहरा था कि आंसू और पोस्ट रुकते नहीं रुक रहे थे लेकिन अपने देश की देवभूमि जहाँ सारे संस्कार करके स्वर्ग पाते हैं आज उसके लिए कुछ शब्द भी भारी पड़ रहे हैं।एक और जहाँ हम पेड़ लगाओ जीवन बचाओ जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं और इसकी पहल के लिए लोगों को जागरूक करते हैं तो वही खुद की लापरवाही के कारण वनाग्नि से जगंलो को नष्ट करते है। हमे पेड़ लगाओ जीवन बचाओ की पहल के साथ लापरवाही पर रोक लगाओ वनाग्नि से जीव जंतु बचाओ की पहल भी शुरू करनी चाहिए। कदम उठाइये वरना वो समय दूर नही जब चिड़ियों की चहचहाट और प्रकृति की शुध्द हवा का भी मूल्य चुकाना होगा ।जैसे आज पानी खरीदकर पीते हैं कल साँसें खरीदनी पड़ी तो दृश्य कोरोना से भयावह होगा।